अवतारवाद का सच


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Acharya AnoopdevDate
29-Aug-2019Category
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HindiTotal Views
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Vikas KumarUpload Date
29-Jul-2019Download PDF
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सं सार में प्रायः अवतारवाद को लेकर यह अवधारणा बनी हुई है कि भगवान या ईश्वर अवतार यानी कि जन्म लेता है। यहां विचार करने वाली बात यह है कि, यदि कहा जाए कि मनुष्य अवतार लेता है, तो यह संभव है, क्योंकि अवतार तो केवल वही ले सकता है जो एकदेशी अणु हो, जैसे कि आत्मा, यानी कि मनुष्य। तो यह अवतार ले सकता है।
लेकिन परमात्मा के लिए यह कहा जाए तो यह केवल मूरखता है क्योंकि ईश्वर तो सर्वव्यापक है, अतः उसको तो अवतार अर्थात् शरीरधारण करने का प्रश्न ही नहीं उठता। ईश्वर को अवतार के रूप में मान लेना सर्वथा अज्ञानता है। जो स्वयम् इस संसार को बनाता है, संव्हालता है और संहार करता है, उस सर्वत्र विद्यमान को अवतरण की क्या आवश्यकता है?
वेद कहता है —
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥
अर्थात् — इस संसार में जो भी यह जगत है, सब ईश्वर से आच्छादित — आवृत है। अर्थात् ईश्वर सृष्टि के कण-कण में बसा है, सर्वव्यापक है। यह सब धनादि जिसका हम उपभोग कर रहे हैं, सब उसका ही है। हम यह सोच कर प्रयोग करें कि यह हमारा नहीं है। जो कुछ हमें उस प्रभु ने दिया है, उस सबका त्याग के भाव से प्रयोग करें।
ईश्वर निराकार है — निर्विकार है — सर्वज्ञ है। फिर उसको मां के पेट में 9 महीने 10 दिन रहने की क्या आवश्यकता है? निराकार होकर साकार होना असंभव है। भला वह परमात्मा विकारी क्यों कर बन सकता है? सर्वज्ञ होकर वह अल्पज्ञ क्यों बनना चाहेगा? ईश्वर तो सर्वव्यापक है, ऐसा कौन-सा स्थान है जहां वह पहले से विद्यमान नहीं? वह सदा से एकरस है, शुद्ध-पवित्र है — वह सबका माता-पिता-बंधु-सखा है, फिर उसे किसी का बेटा बनने की क्या पड़ी है?
श्रीकृष्ण भगवान योग्यश्वर थे, उनको अच्छे-बुरे का भली भांति ज्ञान था। महान आत्मा होने के कारण उनकी प्रबल इच्छा थी कि जब-जब धरती पर अन्याय के कारण अधर्म फैलता है उस समय अगर मैं जन्म लेकर लोगों को अधर्म से बचाऊँ और धर्म की फिर से स्थापना करूँ, तो इस कथन में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? महान आत्माओं की भावना यही होती है कि जब-जब जन्म लें, भटके हुए लोगों को सही मार्ग दिखाएँ अथवा उनको लक्ष्य तक पहुँचाने में ही उनका मार्ग प्रशस्त करें।
श्रीकृष्ण योगी थे — महामानव थे। अगर उनकी यह इच्छा रही होगी तो क्या बुराई है? उनके कथन को हम लोगों ने गलत समझा है कि जब चाहें जन्म ले सकते हैं। मुक्तात्माएँ भी यही चाहती हैं कि वे संसार में जाकर सबका मार्गदर्शन करें।
ईश्वर की व्यवस्था के बिना कोई भी आत्मा स्वेच्छा से शरीर धारण नहीं कर सकता और न ही शरीर का निर्माण कर सकता है।
ज़रा सोचिए और विचारिए कि ईश्वर जन्म क्यों लेना चाहेगा या अवतार लेना क्यों चाहेगा? दुष्ट लोगों का सफ़ाया करने के लिए? परमपिता परमात्मा कभी बिना कारण के किसी को कष्ट नहीं देता। मनुष्य मरता है अपने ही कारणों से। प्राकृत नियमों के विरुद्ध आचरण से शरीर में परिवर्तन आता है — शरीर रोगी बन जाता है और अंत में परिणाम मृत्यु होती है। मृत्यु के अनेक कारण होते हैं।
ईश्वर सबको सुघड़ने का अवसर देता है। मनुष्य बुरा हो या अच्छा — सबको जीने का अधिकार मिलता है। किसी विशेष व्यक्ति का नाश करने के लिए ईश्वर अवतार ले, यह तो ईश्वर का निरादर करना है।
मनुष्य का अवतरण या जन्म-मरण संभव है। महापुरुषों का अवतरण या जन्म संभव है, परंतु ईश्वर को ऐसे बंधनों में बाँधना केवल नासमझी की ही बात है। ये सामान्य लोगों की पोपली बातें हैं, और कुछ नहीं।
ईश्वर का साकार अर्थ श्रद्धाार्ण करना सर्वथा असंभव है। परमात्मा निराकार है, उसको जाना केवल अनुभव किया जा सकता है। योगसाधना से ईश्वर की प्राप्ति होती है।
न कभी ईश्वर का अवतार हुआ है और न कभी होगा — यही सत्य है, यही वैदिक मान्यता है। ईश्वर निराकार है और निराकार ही रहेगा।
संसार में तीन तत्त्व अनादि और अनन्त हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है — ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति।
ऋग्वेद में बताया गया है कि —
"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।"
(तैत्तिरीय उपनिषद्)
अर्थात — यहाँ यही बताया है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, उनमें से एक उस वृक्ष के खट्टे-मीठे फलों का स्वाद चख रहा है, तो दूसरा पक्षी उसे देख रहा है, स्वाद नहीं चख रहा। अलंकारिक भाषा में यहाँ तत्त्व अनादि तत्त्व ईश्वर, जीव और प्रकृति का वर्णन है। वृक्ष प्रकृति के रूप में दर्शाया है, देखने वाले पक्षी का संकेत ईश्वर के लिये तथा फल खाने वाले पक्षी का जीव के लिये संकेत है। ईश्वर इस प्रकृति में जीव के कर्मों को देख रहा है। वह कर्मों का भोग्ता नहीं है। जब भोग्ता नहीं तो जन्म किसलिए? वह तो सर्वव्यापक विभु है, सर्व शक्तिमान है, अपने शक्ति से सृष्टि को चला रहा है। रावण हो या दुर्योधन, सबने अपने कर्मों को भोगा।
ईश्वर के अवतार से राम का कोई सम्बन्ध नहीं। वे कौशल्या के गर्भ से पैदा हुए, संसार में आए और उन्होंने अपने कर्म किये। उनका कर्म उनके साथ था। वे दशरथ के पुत्र थे। ईश्वर किसी का पुत्र नहीं, अपितु सबका पिता है। कर्मफल भोग्ता तो गर्भ में भी रहेगा, जन्म भी लेगा, दुख भी सहेगा, क्लेश भी सहेगा, मोह-माया के बन्धन में भी रहेगा मृत्त्यु भी होगी। यह गुण कर्मफल भोग्ता जीव के तो हैं, ईश्वर के नहीं। अतः राम को ईश्वर बताना न तार्किक है, न युक्तियुक्त। राम दशरथ नन्दन थे, राजा मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वेदानुसार चलने वाले थे।
उनका जीवन हमारे लिये प्रेरणा प्रदान करता है।
लेखक — आचार्य अनुपदेव
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