कई महीनों पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने एक शब्द इजाद किया था — इस्लामोफोबिया। आज कल इस्लामोफोबिया नाम का इस शब्द का इस्तेमाल भारत में बख़ूबी हो रहा है। कई मंचों, पत्रकारों से लेकर कथित सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ नेता इस शब्द के सहारे अपनी-अपनी राजनीति चमका रहे हैं।

अच्छा, ये इस्लामोफोबिया कहाँ से आ रहा है? जैसे अप्रैल माह में लॉकडाउन के दौरान मध्य प्रदेश के भोपाल और उत्तर प्रदेश के बरेली में जब पुलिस तबलीगियों के बारे में जानकारी करने पहुँची, तो अचानक मजहब विशेष से जुड़े कुछ लोगों द्वारा उन पर हमला कर दिया गया। उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में कोरोना जाँच करने गई मेडिकल टीम पर हमला हुआ है। यह घटना जिले के नागफनी थाना के हाजी नेब की मस्जिद इलाके में हुई है। बिहार के औरंगाबाद में भी स्वास्थ्य विभाग की टीम पर मजहब विशेष से जुड़े ग्रामीणों ने हमला किया। डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मियों को पीटा गया। वहीं में भी टोंकफोड़ की गई। इससे पहले मेरठ में मस्जिद के इमाम समेत 4 लोगों ने अधिकारियों की टीम पर हमला कर दिया था। गाजियाबाद में महिला मेडिकल स्टाफ से अश्लीलता की गई। और भी ऐसे अनेक मामले हुए जो मजहबी तकरार के गवाह बने। जिनका मजहब विशेष के धर्मगुरुओं की तरफ से कोई विरोध नहीं किया गया न ही इन हमलावरों पर फतवे जारी हुए।

लेकिन जब इनके खिलाफ मीडिया के कुछ पत्रकार खड़े हुए और सोशल मीडिया पर डॉक्टर्स और पुलिस का समर्थन कर रहे लोगों ने भी आपत्ति जताई तो इसे इस्लामोफोबिया कहा गया कि ये कहा कि लोग हमारे मजहब को बदनाम कर रहे हैं।

तब्लिगियों द्वारा मचाया गया इस हिन्सा उत्पात के खिलाफ न तो ओवैसी बंधू, न इस पर आरफा खानम की आवाज़ उठी न वो असंख्य धर्मगुरु इसके खिलाफ मज्जमत करने आये जो एक मुस्लिम लड़की गीता के मातृ श्लोक गाने पर फतवे तक जारी देते हैं। और न ही वो मौलाना बोले जो शामा को मीडिया के स्टूडियो में बैठ कर गंगा जमुनी तहजीब का पाठ पढ़ाते हैं। फिर आखिर मजहब को बदनाम कौन कर रहा है? कट्टरपंथी मुस्लिम या अन्य समृद्ध मुसलमान? आखिर क्या कारण है कि हिंसा उपद्रव और उत्पात करने से मजहब बदनाम नहीं होता लेकिन इस सबका विरोध करो तो बदनाम हो जाता है?

हो तो कुछ ऐसा ही रहा है शाहीन बाग में देश विरोधी बयान आएं सब नरमपंथी मुस्लिम खामोश रहे, वहां से हिंदू के लिए उसाया गया जैसे कि मामले पुलिस ने भी कहा है नरमपंथी मुस्लिम खामोश रहे, नतीजा दिल्ली में हिंदू दंगा लेकिन नरमपंथी मुस्लिम यहां भी खामोश रहे अगर कुछ ने जबान खोली तो बहुसंख्यक वर्ग पर आरोप लगाये। किंतु जैसे ही इस हिंदू में कई कट्टरपंथियों की भूमिका संदिग्ध पाई गई उनकी गिरफ़्तारियां हुई तो नरमपंथियों की ओर से कहा गया कि इस्लामोफोबिया हमारे मजहब को बदनाम किया जा रहा है।

मजहबी खे़ल समझिए जब तक कट्टरपंथी अलगाव हिंदू या असामाजिक अनैतिक कृत्य करते रहेंगे नरमपंथी ढांढा जैसे सेकुलर कहा जाता है वह खामोश बना रहेगा। क्योंकि ये लोग जानते हैं कि पहला ढांढा मजहब के लिए काम कर रहा है, लेकिन जैसे ही अन्य वर्ग इसका विरोध करता है तो तब कट्टरपंथी पीछे हट जाते हैं और कमान नरमपंथियों के हाथ में थमा दी जाती है। नरमपंथियों की जमात मीडिया सोशल मीडिया प्रिंट मीडिया व संचार माध्यमों से शोर मचा देते हैं कि देखिए साहब हिंदुस्तान में किस तरह अल्पसंख्यक वर्ग को टारगेट किया जा रहा है। अचानाक मजहबी अभिविनताओं को भारत में डर लगने लगता है, देश के उच्च पदों पर बैठे नरमपंथी कट्टरपंथ की ढाल बन जाते हैं।

वैसे राजनीति में इसे चेक एंड बैलेंस का खेल कहा जाता है कि एक चेक करें अगर शोर न हो तो करता रहे है किन्तु अगर किसी कारण शोर मचे तो दूसरा उसे बैलेंस बना ले। बस यही तो हो रहा है इसी सरल से सूत्र से पिछले सत्तर साल से इस देश की राजनीति का गणित हल किया जा रहा है।

आप खुद देखिए दिल्ली के ख्याला इलाके में एक लड़का अंकित सक्सेना दूसरे मजहब की लड़की से शादी करना चाहता था लेकिन मजहबी मानसिकता से ग्रस्त कई लोग उसकी दिनदहाड़े गला रेतकर हत्या कर देते हैं। कोई नरमपंथी इसकी मजम्मत नहीं करता न ओवैसी सामने आता और न मजहबी धर्मगुरु। लेकिन जैसे ही बहुसंख्यक वर्ग उग्र होता है निंदा करता है तो नरमपंथियों द्वारा कमाना सम्भाली जाती है और कहा जाता है कि एक घटना से आप समूचे मजहब को बदनाम कर रहे हैं?

लोगों ने बात मान ली, इसके बाद लेक‍िन इसके कुछ दिन बाद दिल्ली के मोती नगर इलाके में धर्म त्यागी हत्या कर दी जाती है। कारण धर्म त्यागी की बेटी को रोज़ाना कुछ कट्टरपंथी छेड़ते थे, जैसे ही एक दिन धर्म त्यागी ने इसका विरोध किया तो उसका काम तमाम। तब एक भी नरमपंथियों की जमात से सामने नहीं आता। न ओवैसी का बयान आता, न इनके कथित धर्म गुरुओं का। लेकिन जैसे ही इसके खिलाफ आक्रोश उत्पन्न होता तो अचानक नरमपंथियों की जमात टूट पड़ती है कि एक मामले से सारे मजहब को बदनाम किया जा रहा है।

अखिर मजहब को बदनाम कर कौन रहा है, हत्यारे या विरोध करने वाले? ये सवाल कोई इनसे नहीं पूछता, दिल्ली के ही मानसरोवर पार्क में आदिल नाम लड़का रिया गौतम की हत्या दिन दहाड़े करता है, सब नरमपंथी मौन रहते हैं। लेकिन जैसे ही बहुसंख्यक वर्ग इसका विरोध करता है तो इस्लामोफोबिया हो जाता है। मजहब को बदनाम करने साजिश बताया जाता है।

हमेशा कहा जाता है इस्लाम एक शांति का मजहब है। चलो मान लिया, शांतिप्रिय लोगों की संख्या अस्सी फीसद से ज्यादा है। चलो मान लिया। लेकिन इन लोगों ने आज तक क्या किया? कभी किसी हत्या, हिंसा या दंगे का विरोध किया, कभी किसी कट्टरपंथी के खिलाफ फतवा दिया हो? शायद नहीं! फिर मजहब को बदनाम कौन कर रहा है?

बल्कि विश्व की प्रतिष्टित एजेंसियों का निष्कर्ष है कि कुल मुस्लिम जनसंख्या का 15 से 20 फीसद ही कट्टरवादी है। यानि 18 से 20 करोड़ जिहादियों के ऊपर ही पश्चिमी सभ्यता के विनाश का अंधा जुनून सवार है। शायद यह संख्या अमेरिकी जनसंख्या के बराबर हो। लेकिन इसकी चिंता विश्व को क्यों हो? आप मानव इतिहास का कोई भी पन्ना उठाकर देख लो यह सच है कि अधिकांश जर्मन शांति प्रिय लोग थे फिर भी हिटलर नाजियों के कारण 6 करोड़ मासूम लोग मारे गए। नाजियों के यातना शिविरों में 1.4 करोड़ लोग मारे गए जिनमें 60 लाख यहूदी थे। तब अधिकतर शांतिप्रिय लोग क्या कर पाए? कुछ नहीं।

उसी तरह अधिकांश रूसि शांति प्रिय थे, लेकिन कट्टर वामपंथियो द्वारा 2 करोड़ मासूम लोग मार डाले गये। तब अधिकतर शांति प्रिय लोग क्या कर पाएंगे? कुछ नहीं।

 

चीनियों को देखें लीजिये अधिकतर चीनी शांति प्रिय थे, लेकिन खूंखार वामपंथियो द्वारा काट डाले गये। तब अधिकतर शांति प्रिय लोग क्या कर पाए? कुछ नहीं।

 

जापान को देखें लो अधिकांश जापानी लोग शांति प्रिय थे, किन्तु दूसरे विश्व युद्ध में जापानी फ़ौज ने पूरा एशिया में 1.2 करोड़ लोगों नुक़ीली सांगेनों से काट दिये। तब अधिकतर शांति प्रिय लोग क्या कर पाए? कुछ नहीं।

11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में 23 लाख अरब मूसलिम मोजूद थे जिनमें आर्थिक शांति सुनिश्चित थे लेकिन 19 ज़िहादियों द्वारा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हमला किया गया। 3 हजार लोग मौत के घाट उतारा दिए अमेरिका गुटनों पर लाया दिया तब 23 लाख शांति सुनिश्चित लोग क्या कर पाए? Kuch नहीं।

इसि तरह देखें तो 9 सितंबर 2008 भारत में करीब 15 करोड़ मूसलिम मोजूद थे, किन्तु चार ज़िहादियों ने ताज़ हॉटल पर हमला कर 250 से ज़्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया तब 15 करोड़ शांति सुनिश्चित लोग क्या कर पाएं?

सवाल अब फिर वही है कि इस्लाम को बदनाम करने किया? आज दुनिया में दस बज़े कट्टरपंथि संगठनों की संख्या है? इस्लामिक स्टेट किसके लिए काम कर रहा है, अलकायदा के सदस्यों किसके लिए काम कर रहे हैं? तालिबान और पाकिस्तान का तारीख-ए-तालिबान के lâज़ाके किसके लिए हिंसा कर रहे हैं? बौको हराम अल नूसरा फ्रंट हिज्बुल्लाह हमास लश्कर ए तैयब्बा, जैश ए मोहम्मद हिज्बुल्लाह मुजाहिदीन जैसे अनैकों चोटे बुझे संगठनों को आँखिर किसके लिए हिंसा कर रहे हैं? जवाब होगा मजहब के लिए और जो लोग जिन्हें नर्मपंथी मुस्लिम कहा जाता है वो अग्र इस्का विरोध नहीं करते तो वह बोलीए वह किसके लिए काम कर रहे हैं? जवाब साफ है मजहब के लिए?

पिछले दिनों साथी ने एक lâज़की सफूरा ज़रगर लगातारा भाषण देते रही लोगों को ऊकसाती रही एक भी नर्मपंथी समुदाय ने नहीं आया लोगों जैसे हुई अब उसी गिरफ्तारी हुई साहिब एक सूर में सबसे आये और बोले कि मजहब को बदनाम किया जाता है, भारत में इस्लामफोबिया बड़ रहा है। लोगों सवाल यही मजहब को बदनाम कर कौन रहा है हिंसा करने वाले उनका मोन साठ देने वाले या फिर इस सबका विरोध करने वाले और समझ जाइये।

 

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