जब परम ध्यानी और तपस्वी शिव को भांग पीने वाला कहा जाने लगे, जब ज्ञानी, नीति और धर्म के ज्ञाता श्रीकृष्ण जी को रसिक, चाकुर कहा जाने लगे और जब धर्म के गुरुओं का अपने मंचों से म्लेच्छों का गुणगान करने पर जनता तालियां बजाती हो तो समझ लीजिए कि योग गुरु के अभाव में हिंदू समाज भटक गया है। हमने मोरारी बापू की पुस्‍तक मजहब ए मोहब्‍बत पढ़ी। बापू अपनी पुस्तक के 167वें पेज पर कह रहे हैं कि राम-राम पढ़ते मेरी जुबान तो पवित्र हो ही चुकी है, आज कुरआन पढ़ लूं, और पवित्र हो जाऊंगी। क्या फर्क पड़ता है जुबान पर वेद के श्लोक हों या पवित्र कुरआन की आयतें। ऐसी ना जाने कितनी उत्तपटनांग बातें उक्त पुस्तक में भरी पड़ी हैं। केवल एक बापू को ही दोष देना उचित नहीं है, बल्कि रामपाल हो या देवी चित्रलेखा कोई भी कहीं भी कथा के नाम पर धर्म के नाम पर अपनी गंदी सजा ले रहा है।
धर्म के क्षेत्र के एक कहावत है कि स्वयका अध्ययन और योग गुरु का होना बेहद ज़रूरी है, यदि इनमें से एक भी चीज़ कम है तो इंसान को भटकने से कोई नहीं रोक सकता है। एक समय एक कालखंड ऐसा था जब यहां न योग गुरु बचे थे और ना स्वयका अध्ययन। तब इस वैदिक धरा पर विदेशियों का शासन हो गया था। इसी से त्रस्त होकर धूखी होकर स्वामी दयानंद जी खड़े हुए और लोगों को आज्ञान्ता के अंधकार से बाहर ज्ञान के प्रकाश का मार्ग दिखलाया। लेकिन आज जैसे ही साधन और विज्ञान आगे बढ़ा दुबारा उन लोगों द्वारा भीड़ जोड़कर वही आज्ञान्ता प्रक्रिया जा रही है। हालाकि थोड़ी सच्चाई यह भी है कि आज के व्यस्त जीवन में समय के अभाव ने लोगों को हर विषय में शॉर्टकट करने के लिए मजबूर कर दिया है। मन है, श्रद्धा है, लेकिन समय की कमी है जिसके चलते लोग इन विषयों पर न कहीं चर्चा करते हैं और न ही किसी सुयोग्य विद्यार्थियों का सत्संग करते हैं। ऐसे में ज्ञान हो भी तो कैसे?

कहीं कीर्तन मंडली में बैठ गए, फोन में या टीवी में दो भजन सुन लिए, कहीं कथा सुन ली या साप्ताहिक मंदिर में प्रसाद चढ़ा दिया तो सोच लिया कि हमने धर्म पढ़ लिया और हम धार्मिक हो गए। बस इसी साप्ताहिक, मासिक, छमाही या वार्षिक धार्मिकता का लाभ कथावाचक उठा रहे हैं। आजकल कथावाचकों द्वारा आज्ञानी शिष्यों के बीच सनातन धर्म को प्रस्तुत किया जा रहा है। क्योंकि इन्हें अब राष्ट्रीय स्तर की उपाधि से संतुष्टि नहीं मिलती जब तक इन्हें अंतरराष्ट्रीय संत न कहा जाए। इसी अंतरराष्ट्रीय पद के लालच में ये लोग सनातन मं‍चों से जीसस की कृपा का बखान कर रहे हैं, इमाम हुसैन के किस्से सुना रहे हैं। मोहम्मद साहब को दयाका सागर और योगिराज श्रीकृष्ण जी पर आ‍रोप लगाने के साथ उनके बच्चों को शराबी उपद्रवी बता रहे हैं।

इनकी मार्केटिंग इतनी जबरदस्त है कि मल्टीनेशनल कम्पनियाँ भी चक्कर खा जाएं। विदेशों में जाते हैं वहाँ बड़े-बड़े आसान सजाते हैं कि देखकर ही सामान्य जनमानस देखते ही ढेर हो जाता है। इनके ललाट पर फैशनेबल तिलक, डिजाइनदार वस्त्र और हाथों में अंगूठी सोने का कड़ा गले में ढाई तीन सौ ग्राम का चैन लोग देखकर प्रभावित हो जाते हैं और समझते हैं कि ये तो उच्च कोटि के बड़े संत, महान संत हैं।

इसी मार्केटिंग की देन है मोरारी बापू। जब रामकथा नहीं होती तो बापू वारणसी के मणिकर्णिका घाट पर चले जाते हैं। जहाँ मुर्दों का अंतिम संस्कार किया जाता है। बापू वहाँ बैठ कर अपने एक शिष्य का मंगल विवाह रचाते हैं, पता था आलोचना होगी लेकिन ये भी पता था कि नाम होगा। इसी तरह बापू मुंबई के वैश्याों को कथा में आमंत्रित करने उनके घरों में गए, लोगों को बताया कि मानस में वैश्या का स्थान पर कथा सुनाऊंगा। कभी मानस में हिजड़े को पैकेज बनाकर कथा वाचन किया। जाहिर सी बात है कि आलोचना हुई लेकिन लोकप्रियता भी मिली। चूंकि फिल्म का विज्ञापन करना हो तो हिंदी धर्म को अपमानित कर दो, फिल्में हिट हो जाती हैं। ठीक वैसे ही इनके साथ-साथ ओरों ने इसे औजार बना लिया।

हम बापू के वैश्याों के बीच कथा करने की आलोचना नहीं कर रहे हैं। अच्छा होता है बापू मासिक त्रैमासिक यह कथावाचन करते, उनके बच्चों को स्कूलों में भेजते। अपने ट्रस्ट के माध्यम से उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं का आरम्भ करते जिससे उनका इस नरक भरी जिंदगी से हमेशा पीछा छूट जाता है, क्या आर्य समाज रेगुलर समाज से लेकर दलित एवं अनकों समाज के लिए ऐसे कार्य किये जो इतिहास में आज भी अंकित हैं।

लेकिन बापू को अपने धर्म और समाज की परवाह नहीं है। बापू को तो निज जीवन में स्वयं की ऊँचाई चाहिए। इसलिए बापू हरि बोल, हरि बोल के अली बोल, मौला बोल भी बोलने लगते हैं। ये भी कहिए कि अब कथाओं के बीच-बीच में भजन को द्विअर्थी बनाकर, सम्प्रदायिक सौहार्द्र को बढ़ावा देने के नाम पर, अली मौला और अल्लाह हू अकबर का चलन शुरू किया गया है, जो अब कथा प्रेक्षी हिन्दी समुदाय भी दो पक्षों में बंट कर रहा गया। जो कथा का वाचन, श्रवण, उद्देश्‍य, शुद्ध मन के साथ पवित्र कामना जैसी विशयों को जानते हैं, वे इस चलन का विरोध करने लगे हैं। जो अज्ञानी हैं जिससे संत और कथावाचक की परिभाषा ही नहीं पता, वह सम्प्रदायिक सौहार्द्र के नाम पर कुतर्क करने लगा है। कथा में माहौल बनाने के लिए महिलाओं के नृत्य को आवश्यक बताने लगा है, साथ में आनंद लेने के नाम पर समरथन में उतर गया है।

लेकिन सत्य ये है कि आज के कथावाचक न संत हैं और न ही साधु, बस मृदुभाषी हैं, और मन से धन पिपासु हैं। जैसे फिल्मों में गाने के लिए लटके झटके होते हैं, वाद्य यंत्रों का ज़खीरा होता है वैसे ही इनके कथा पंडालों में भी लटके झटके को खुलेआम देखा जा सकता है। क्या कोई बता सकता है कि शुकदेव जी, वैष्णपायन जी, वशिष्ठ जी या सनत कुमारों द्वारा किसी कथा में भजन भी गाए थे? कोई नृत्य गान भी हुआ था? कोई संगीत मंडली भी होती थी? भगवद् के धर्मोपदेश, उपदेश, उनके लीलाओं की गूढ़ समीक्षा, यहां तक कि उनके आदर्श चरित्र की चर्चा तो दूर की बात है ये तो शिष्यों में भक्ति के भाव को भी उत्पन्न नहीं कर पाते। महिलाएं कैमर के सामने खूब नृत्य करती हैं और कैमरा हटता बस सब भक्ति उतर गई। दूरदर्श से भारत के इस्लाम में कट्टरता बढ़ रही है, उनके द्वारा हिंदुओं की नृशंस हत्या की जा रही है, इनके अधिकारियों का हनन किया जा रहा है, शासन द्वारा लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इन्हें चुप कर दिया जा रहा है,संप्रदायिक तनाव बताकर डरा दिया जा रहा है। ऐसे में भारत की सनातन व्यवस्था चले तो कैसे चले? आने वाले दिनों में कथा सुनने जाएं तो हो सकता है कि भजन के बदले गजल और कव्वाली के साथ ही साथ फिल्मी नगमें सुनाई दे तो आश्चर्य मत कीजिएगा क्योंकि जहां विरोध किए वहीं पर कुछ समर्थक करने वाले मरने मारने पर आ जाएंगें क्योंकि धर्मनिरपेक्षता है ना इसमें सनातन धर्म को ऐसे ही लोग चलाएंगे।


 

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