एक बड़ा राष्ट्रपति कथन है कि राष्ट्रपति महासागर की तलहटी से सारा किचड़ निकाल कर अगले मिशनरियों पर फैंका दिया जाए तो भी मिशनरियों के मुकाबले किचड़ है साफ दिखाई देगा। भारत में कैंवेंट स्कूलों ने पहले कितना बदली यूरोप की कहानियां पायकर्म में घुसा दी फिर दुकानों के ड्रेस बदली लोगों को सोलवार कमीज से स्कर्ट में इसलीए लाए ताकि ये लोगियां आगे चलते समय के साथ ननगता सवीकार कर ले। इसी आलावा कैंवेंट स्कूलों में दैनिक पार्थनां बदली अनुशासन के नाम पर नियम कायकद बनाए लोगों और अब बच्चों के नाम बदली रहे हैं। हो सकता है कल आपके घर से कैंवेंट स्कूल में पड़ने वाले किसी दीपक या रोहित का नाम रॉबर्ट या पीटर हो जाए तो चूकना मत ये सब एक गिनीनी साजिश के तहत किया जा रहा है।

अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा दान है, जितना किया जाये कम है। लेकिन दान औरजगान के नाम पर अगर कोई आपकी धार्मिक सामाजिक पहलूण ही छीन ले?यानि दशवीन की अंकतालिका और प्राथमिकता यानि जिंदगी भर की पहलूण ही बदली दे, इसके बाद अगर आप की जेब में पैंसे और आप की पंहुच है तो आप अपना पुराना नाम पा वापस सकते हैं। लेकिन अगर ये दोनों चीजें आप के पास नहीं हैं तो आपको रॉबर्ट और पीटर के नाम से जीवन जीना पड़ेगा।

मिशनरीज ऐसी अनैकों करतूत हर रोज अखबारों में पढ़ने को मिल जाऐगी लेकिन इस मामलें का सबसे बड़ा खुलासा 2015, 2018 और कुच जगह दो हजारा ऊन्नीस में हुआ था। साल 2015 में गुजरात पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की सीबीएसईएसई की अंकतालिका हाथ में आने के बाद जब इस गोरखधंधे का खुलासा हुआ, तो बच्चों को एक कागज तमाचा दिया गया जिसमें अनूसार नाम बदलने के पीछे मुताबिक़ की मांग न होने की बात कही गई थी। यह मामला़ देश भर में इसी फंडे के शातिर हाथकोंड़ों की कई कड़ियाँ खोल गया था।

इसमें सबसे ज्यादा शिकार कौन लोग हो रहे है एक-एक कशी समजिये अमीर बच्चों की शिक्षा के साथ आर्थिकता के नाम पर संस्कार बदल दिए जाते है, और गरीब बच्चों के अंकतालिका में नाम। जिससे पिछ्ले दिनों लंबे एक बाल गृह में हुआ था। जहाँ रहने वाले बच्चों के स्कूल प्राथमिकता में माता-पिता के नाम की जगह इसका संबंध ने अपना़ और अपनी पत्नी का नाम दर्ज कराया हुआ था। हरानी की बात यहाँ है कि ये सभी बच्चे संझाल को फादर ही बोलते थे।

इसें तरह दोसरा़ एजेंडा देश के विखिन्न हिस्सों में इसी तरह न केवळ इसी पंथ के अनुसार बच्चों से प्राथमिकतना कराया जाती है, बल्कि बच्चों के गलें में क्रास का लॉकेट तक पहनाया जाता है।illator बच्चों दिल्ली बिहा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मणिपुर, ओडिशा और बिहार से लाए जाते हैं। दरअसल ऐसा इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसमें भाषीय में बड़े होने पर बच्चों को उनकें इसी माता-पिता का नाम मिलनें पर इसी समय जाएगा। साल 2015 में पांंछजन्य प्राथमिक में इस खेल का खुलासा करते हुए एक विशिष्ट शोढ़ चुका था।

ये खेल चलता क़ैसे है असल में गरीब बच्चों को पढ़ाने के नाम पर जेलर्सकारी संगठनों या बालगृह वाले प्रत्येक बच्चों की शिक्षा व उस्की वेबसाइट के नामा वीडियोशोण से श्फ़ोरेन कंट्रीब्यूशन रैगुलेशन एक्ट यानी एफसीआरएए 2010 के माध्यम से आर्थिक मदद लेते हैं। यानी इशािष्नीर्जी भारत में इन संगठनों को मोटा पैसा देते हैं। बच्चों को पढ़ाने की आस में उनके गरीब अपने माता-पिता भी निश्चिंत होकर उन्हेें दाख़रेख के लिए सोंप देते हैं, लेकिन ये लोग बड़ी चालाकी से उनकी जगह स्वयँ बच्चों के माता-पिता बन जाते हैं।

बालगृह में प्राथमिक करते-करते बच्चे एक दिन स्वयँ ऐसा बन जाते हैं क्योंकि स्कूल रिकार्ड में उनके हिन्दू यानि असली माता-पिता का नाम नहीं, बल्कि इसी माता-पिता का नाम रहता है। यही कारण है कि कई बार बच्चों को नाबालिग से बालिग होने पर हिन्दू धर्म से इसाई बननें का पता है नहीं चलता है कि वो कब इसी बन गये!

आखिरinka पूरा गेम समझिये अक्शर जब अन्‍य मत वाले किसी एक व्यक्ति या परिवार की घर वापिसी होती है तो सोशल मीडिया में उस खबर बढ़े त्रीके बताया जाता है। वापिसी कराने वाले भी खूब सेल्फी ले लेकर ड़ालते है लेकिन ये लोग शोर नहीं करते चुपचाप कब लोगो को शिकार बनाना लेते है पता है नहीं चलता। ये साइलेंट शिकार है इनके मुंह शिकार गरीब तबका, महीलाये और बच्चोें होते है। जाते पिचले दिनों एक गैरे सरकारी संगठन बच्चपन बचाओ आंदोलन द्वारा दस्तिन-पश्चिम दि‍ल्ली के खावला सीट ताजपुर गांव में अवैध रूप से चल रहे ईमेन्युअल ऑरफेनेज क्ल्डर्न होम में छापेमारी के दौरान 54 बच्चों को मुक्त कराया गया था। इनमें 43 लड़के, तथा 11 लड़कियांं बताई गयी थी। इन बच्चों को जब इनके माता-पिता के सुपरर्द किया गया था तो खुलासा हुआ कि kuch बच्चों के माता-पिता हिंदू थे, जबकी उन्‍के बच्चों ईसाई बन चुके थे। 3 से 17 वर्ष की आयु वाले ये सभी बच्चे उक्त प्रर्देश, मणिपुर, बिहाार और झारखंड से लाए गये थे।

इसें तर्ज पर जब पिछलें कुछ समय पहले दस्तिन-पश्चिम जिले में इमेन्युअल, उम्मीद, आशा मिशन, प्रेर्म का जीवन् समेट था और ऑफ होप नाम के बालगृह को निरिक्षण के दौरान अवैध रूप से चलनें पर बंद किया गया है। ये सभी बिनां पंजीकरण के चलते जा रहे थे, इनमें से हौंस ऑफ होप का संचालक निरिक्षण की सूचना मिलने पर फरार हो गया था। इसके बाद आशा मिशन होम से 4 और उम्मीद संस्थान से 17 लड़कियों को मुक्त कराया गया था। इसी मिशनरी द्वारा संचालित बालगृह में रहने वाले बच्चों से तीन-तीन घंटों प्रतारणा करायी जाती है, गले में क्रास का लॉकेट पहना या गया था और उन्हें चरच भी ले जाया जाता था।

अब ये देखिये कि ये लोग इस काम को अंजाम किस तरीके से देते हैं और ये बच्चे इनके पास कहाँ से आते हैं। दरअसल अनेकों राज्यों में इनके आधिकारिक राज्यवार फैलें होते हैं गरीब वर्ग के लोगों या विधवाओं पर निगरानी रखकर सुनियोजित तरीके से उनके बच्चे को शिक्षा मुहैया कराने का प्रलोभन देते हैं और उसके बाद बच्चों को दिल्ली ले आते हैं।

दूसरा स्टेप: कई राज्यों में जब पादरी या पास्टर को भरोसा हो जाता है कि आर्थिंक रूप से कमजोर हिन्दू माता-पिता उनके चर्च में आने शुरू हो गए हैं तो वे दिल्ली फोन कर संचालक को उनके बच्चे लेकर जाने के लिए संकेत दे देते हैं। फिर इन बच्चों को बालगृह में भेज दिया जाता है और वर्ष में काफी कम दिनों के लिए ही उनके माता-पिता से मिलने दिया जाता है। दिल्ली और देश के विभिन्न हिस्सों में अवैध रूप से बालगृह चल रहे हैं, जबकि इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार चिंता जता चुका है। लेकिन राज्य सरकारें किसी हमेशा इनके आगे कमजोर दिखाई देती हैं। एक बार सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता, मोनिका अरोड़ा ने एक इंटरव्यू कहा था कि वोट बैंक की राजनीति के चलते सांप्रदायिक संस्थाएं भी एनटी कन्वर्जन लॉ को लाना नहीं चाहती हैं, यही कारण है कि वर्तमान केंद्र सरकार के आग्रह पर भी विपक्ष इस कानून को लाने को तैयार नहीं हुआ। यदि हम उत्तर-पूर्व की ओर ध्यान दें तो नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में 70 से 80 फीसदी तक हिन्दुओं को ईसाई बनाया जा चुका है और ये काम अब भी जारी है।

राजीव चौधरी

 

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