महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक व निर्माता हैं जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेदों की सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व शिक्षाओं का  जनसामान्य में प्रचार करने के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। वस्तुतः आर्यसमाज संसार से अविद्या का नाश करने तथा विद्या की वृद्धि करने का संसार में अब तक का एक अभूतपूर्व आन्दोलन है। महर्षि दयानन्द अपने समय के एकमात्र वेदों के पारदर्शी मर्मज्ञ विद्वान थे और निजी स्वार्थों, पारिवारिक दायित्वों व चारित्रिक दुर्बलताओं से पूर्णतः मुक्त थे। अतः मानवजाति की उन्नति व देश के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने वेद प्रचार के आन्दोलन आर्यसमाज को स्थापित किया और प्राणपण से उसका पोषण किया। उनके प्रयासों का सुप्रभाव देश, समाज व विश्व की मानव जाति पर हुआ। अपने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए उन्हें जो प्रमुख प्रतिभावान् देशभक्त मिले उनमें शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, रक्तसाक्षी पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, लाला साईंदास सहित पं. चमूपति, एम.ए. भी थे जिन्होंने आर्यसमाज आन्दोलन की सफलता के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। आज के लेख में हम आर्यजगत के उच्च कोटि के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के लेख के आधार पर पं. चमूपति जी के जीवन पर प्रकाश डाल रहे हैं। हम समझते हैं कि जीवित विद्वानों का सत्कार व संगति तो लाभदायक होती ही है, इसके साथ अपने पूर्वज विद्वानों, देशहित व धर्महित के लिए प्रमुख योगदान देने वालों महान पुरूषों का समय-समय पर स्मरण करना भी हमारे जीवन की उन्नति में सहायक होता है। इसी आशय से यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।

पं. चमूपति जी का जन्म आजादी से पूर्व भारत के एक पिछड़े मुस्लिम राज्य बहावलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, वहां 15 फरवरी, सन् 1893 को हुआ था। श्री वसन्दाराम आपके पिता थे और माता थी श्रीमती लक्ष्मी दवी। माता पिता से आपको चम्पतराय नाम मिला। कालान्तर में जब आपकी प्रसिद्धि फैलने लगी तो आपने अपने नाम में संशोधन कर इसको चम्पतराय से चमूपति कर दिया। चमूपति का अर्थ सेनापति होता है। आपके दादा जी का नाम श्री दलपतराय था। बहावलपुर में पं. चमूपति जी का जन्म होने से यह स्थान वैदिक जगत में विख्यात हो गया और भविष्य में भी रहेगा। पं. चमूपति जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बाल्यकाल से ही आप उर्दू में कविता करने लगे थे।  डा. राधाकृष्ण जी आपके सहपाठी थे। आपके अनुसार मैट्रिक करने के बाद कालेज में अध्ययन करते समय आप फारसी में कविता लिखा करते थे।

बहावलपुर एक मुस्लिम रियासत थी और वहां उर्दू फारसी का ही प्रभाव था। हिन्दी व संस्कृत का वहां शायद ही अपवादस्वरुप कोई विद्वान रहा हो। पं. चमूपति भी बी.ए. करने तक देवनागरी के अक्षरों से अपरिचित थे। सत्संग व संगति के प्रभाव से आपको आर्यसमाज का परिचय हुआ और महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का परिचय पाकर आपने इस ग्रन्थ के उर्दू अनुवाद को प्राप्त कर उसको पढ़ा। अनुवाद से आपकी सन्तुष्टि नहीं हुई अतः आपने एम.ए. संस्कृत विषय लेकर किया। बी.ए. तक देवनागरी अक्षरों व वर्णमाला से अपरिचित व्यक्ति का संस्कृत में एम.ए. करना आश्चर्यजनक है और शायद ये अपने समय का शिक्षा जगत का रिकार्ड भी हो। इसे हम असम्भव को सम्भव करने वाले कार्य की उपमा दे सकते हैं। इस कार्य से आपकी विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न होने का ज्ञान होता है।

पं. चमूपति जी सात भाषाओं के विद्वान थे जिनमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषायें सम्मिलित हैं। उर्दू और हिन्दी में की गई आपकी कवितायें दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप से प्रकाशित देश की विख्यात पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। आपके समकालीन प्रायः सभी मूर्धन्य साहित्यकारों, कवियों व पत्रकारों ने आपकी रचनाओं की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आपके प्रशंसक प्रतिष्ठित साहित्यकारों में महाकवि नाथूराम शंकर शर्मा, पं. पद्मसिंह शर्मा, डा. मोहम्मद इकबाल, प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’, कहानीकार सुदर्शन, महाशय जैमिनी सरशार, पं. वितस्ताप्रसाद ‘फिदा’, श्री दत्तात्रय प्रसाद कैफी, महाशय कृष्ण, श्री मनोहरलाल ‘शहीद’ ‘सरोज’ आदि सम्मिलित हैं।  प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’ ने आपसे अपनी एक पुस्तक की भूमिका भी लिखवाई थी। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा के रचयिता डा. इकबाल ने आपको अपना गुरू समान मानकर कहा था कि पं. चमूपति को देख कर मुझे अपने गुरू की याद आ जाती है। पण्डितजी जब कविता पाठ करते थे तो श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। इसका कारण आपकी रचना की श्रेष्ठता के साथ सुनाने का अपना मौलिक अन्दाज था जो कृत्रिमता से रहित सहज व स्वभाविक होता था। मौलाना आजाद भी आपकी प्रतिभा और लेखन क्षमता से परिचित थे। आपने दैनिक उर्दू पत्र ‘‘तेज में आपका एक लेख गीता और कुरान पढ़कर आपसे इसी लेख की शैली में सारे कुरान का भाष्य करने का अनुरोध किया था।

पं. चमूपति जी के गद्य में काव्य का सा रस पाठक को मिलता है। इस संबंध में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि आपके गद्य में भी पद्य का सा रस है। हिन्दी में आप द्वारा लिखित सोम सरोवर व जीवन ज्योति ग्रन्थों को हम गद्यमय पद्य की संज्ञा दे तो यह कोई अत्युक्ति नहीं है। जवाहिरे जावेद, ‘वैदिक स्वर्ग, ‘मजहब का मकसद वचौदहवीं का चांद सरीखी दार्शनिक पुस्तकें इतनी रोचक व साहित्यिक भाषा में लिखी गई हैं कि लेखनी उनकी साहित्यिक प्रतिभा की प्रशंसा करने में अक्षम है। आपके साहित्य, गद्य व पद्य दोनों में, कौन सा रस नहीं है? वीर रस, भक्ति रस, करूणा रस, हास्य-सब कुछ आपको मिलेगा। पं. चमूपति जी ऐसे महामानव थे जिन्होंने स्वेच्छा से धन को धूल समझ कर अपने देश जाति की सेवा, धर्म-प्रचार व धर्म-रक्षा के लिए फकीरी ग्रहण की थी। आप गृहस्थी थे, आपके पुत्र लाजपत जी से हम मिले भी हैं, तथापि आपने परिवार के आर्थिक हितों की उपेक्षा करके तप, त्याग का कांटों भरा मार्ग स्वेच्छा से चुना था। आपके इस जज्बे को हमारा नमन है।

आपकी एक उर्दू रचना दयानन्द आनन्द सागर है जिसमें आपने महर्षि दयानन्द के विभिन्न पहलुओं पर कविताओं की रचना कर प्रस्तुत किया है। उनकी इस रचना से बहावलपुर रियासत में विवाद व बवाल हो गया। मुसलिम रियासत होने के कारण स्वामी दयानन्द की शान में लिखे गये दो शब्दों पर रियासत के मुसलमानों ने आपत्ति की। रियासत के मुसलमान हाथ धोकर आपके पीछे पड़ गये। बवाल को शान्त करने के लिए रिसासत के नवाब की ओर से आपको अपने इन शब्दों पर खेद व्यक्त करने को कहा गया। पं. चमूपति का पक्ष था कि जब उन्होंने कुछ अनुचित लिखा ही नहीं है तो खेद प्रकट करने का कोई कारण नहीं। महर्षि दयानन्द, वेद और आर्यसमाज के प्रति अपनी निष्ठा के लिए आपने अपना परिवार, जन्मभूमि, सगे संबंधी और इष्ट मित्रों का त्याग कर दिया परन्तु झुके नहीं। आज बहावलपुर में उस समय जैसी असहिष्णुता की प्रवृति अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों में देश भर में देखने को मिल रही है। पं. चमूपति का यह त्याग विचारों की स्वतन्त्रता के लिए था। सत्य की वाणी मनुष्यों की हितकारी होती है और ब्राह्मण की गौ कहलाती है। उसे दबाने का मतलब होता है देश को अधोगति में ले जाना। चमूपति जी ने अपनी आत्मा की आवाज को दबने नहीं दिया और स्वयं एक प्रकार का देश निकाला ले लिया। यह भी बता दे कि पण्डित जी हिन्दी कविता में अपना उपनाम चातक और उर्दू रचनाओं में सादिक का प्रयोग करते थे। धर्म, दर्शन, इतिहास उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जो लिखा बहुत सुन्दर व प्रभावशाली लिखा। उनकी भाषा में सौन्दर्य था, ओज था, रस था और प्रवाह था। आपकी भाषा में श्रेष्ठता के सभी गुण थे। अंग्रेजी पर भी आपका अधिकार था। इस भाषा में भी आपने सैकड़ों पृष्ठों की सामग्री दी है।

प्रा. जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी के जीवन की एक छोटी परन्तु सदाचार संबंधी एक बड़ी घटना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार एक बार पण्डित जी सपरिवार रेल यात्रा कर रहे थे। आरक्षण करवा रखा था। टिकट चैकर आया। टिकट देखकर आगे चलने लगा तो पण्डित जी ने आधा टिकट बनाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘‘आधा टिकट किसके लिए?’’ पण्डित जी ने अपने नन्हें पुत्र लाजपत की ओर संकेत किया। टीटी ने कहा, ‘‘इसकी क्या आवश्यकता, यह तो चलता है। पण्डित जी ने कहा, ‘‘यह कल तीन वर्ष का हो गया सो आज इसका आधा टिकट बनना ही चाहिए। तीन वर्ष से एक दिन ऊपर हो गया है। इस पर टीटी ने कहा, ‘‘लगता है कि आप आर्यसमाजी हैं। ऐसा सिद्धान्तवादी

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