आज संसार में जितनी भी भाषायें हैं इनका असतितव अपनी पूरव भाषा में अपभरंशों, विकारों, सधारों व भौगोलिक कारणों से हआ है। हम बचपन में जो भाषा बोलते थे उसमें और हमारे दवारा वरतमान में बोली जाने वाली भाषा में शबदों के परयोग व उचचारण की दृषटि से काफी अनतर आया है। कछ भाषायें हमने विदयालयों में या पसतकों आदि से भी सीखी हैं। जिस या जिन भाषाओं को सीखा है उनका भी पहले से असतितव है। अब हम उस भाषा पर विचार करते हैं जो वरतमान भाषाओं का कारण है। हमें यह तथय जञात होता है कि आज की भाषाओं के पूरव सवरूप को हमारे पूरवजों ने अपने समय की भाषा में कछ अपभरंशों, विकारों व उनमें सधार करके असतितव परदान किया था। उनहोंने अपने समय में पहले से विदयमान भाषा के बिना ही उन भाषाओं को पहली बार सवयं नहीं बनाया था। इस परकार से यदि पीछे की ओर चलते जायेंगे तो हम सृषटि की आदि में पहंच जायेंगे। सृषटि की आदि में यह क और समसया आयेगी कि सबसे पहले जो मनषय उतपनन ह, उनके माता-पिता तो रहे नहीं होंगे फिर उनका जनम कैसे हआ होगा, यह परशन तो बहत अचछा है परनत इस परशन के लोगों के भिनन-भिनन उततर होते हैं। कई लोग नाना परकार की कलपना करते हैं और हमारे ऋषि कोटि के विदवान जन कहते हैं कि आदि कालीन मनषय अमैथनी सृषटि में पैदा ह थे। यदि मनषय को कछ देर के लि छोड़कर हम अनय पराणी - पश व पकषियों पर विचार करें तो वहां भी यही समसया आती है। सबका उततर क ही है कि अमैथनी सृषटि जिसको सरववयापक व सृषटिकरता ईशवर ने कारय रूप में अंजाम दिया। यह अमैथनी सृषटि होती कया है? यह बिना माता-पिता के सनतानों के जनम को कहते हैं। बिना माता-पिता के कया सनतान हो सकते हैं? जी हां, हो सकते हैं, इसका परमाण यह संसार है। तरक से भी यह सिदध है कि क न क दिन यह जगत, सृषटि बनी अवशय है। सृषटि बनने से पूरव इसका असतितव नहीं था। जब असतितव नहीं था तो बनायेगा कौन? इसका उततर है कि किसी क सतय, चितत, आननदयकत, सरववयापक, निराकार, सरवजञ, अनादि, अजनमा, अमर, सृषटि रचना की अनभवी सतता ने ही इस संसार को बनाया है। यही उततर हमें वेदों से मिलता है कि क ईशवर है जिसमें यह सभी गण है और वही इस सृषटि को बनाता है और आरमभ में अमैथनी सृषटि में मनषयों सहित सभी पराणियों को उतपनन करता है। यह उततर पूरणतः वैजञानिक उततर है। यदि वैजञानिक कहे जाने वाले लोग इसे सवीकार न करें तो इसका अरथ यह है कि उनहें ईशवर व जीव का जञान नहीं है जबकि इनकी सतता यथारथ है। कछ समय लगेगा और अनत में उनका यही निषकरष होगा कयोंकि सभी अनमान, कलपनायें, मानयताओं, सिदधानतों व थयोरियों पर विचार किया जा चका है और ईशवरेतर कोई भी कलपना व विचार सनतोषजनक नहीं मिला है। ईशवर, जीवातमा व कारण परकृति -- अनादि, नितय, सतय, अजर, अमर ततव हैं, इनकी न तो उतपतति होती है और न ही नाश होता है। विजञान भी इस अमरता के सिदधानत को मानता है। ईशवर, जीवातमा व कारण परकृति अतयनत सूकषम होने के कारण चरम चकषओं से देखे नहीं जा सकते। इस न दिखने के कारण ही विजञान इनके असतितव को सवीकार नहीं करता। कारण परकृति की कारय अवसथा कयोंकि सथूल है और वह आंखों से दिखाई देती है, इसलिये विजञान व वैजञानिकों को वह सवीकारय है। ईशवर चेतन ततव है अरथात वह हमारी आतमा जैसा हमसे कहीं बड़ा, अननत परिमाण वाला है अरथात सरववयापक व निराकार है। इसके साथ ही ईशवर व जीवातमा के परकृति के मूल सवरूप से भी अतयनत सूकषम होने के कारण इन दोनों पदारथों का आंखों से दिखाई देना समभव नहीं है। आंखों का काम तो सथूल पदारथों को देखना है अतयनत सूकषम पदारथों को नहीं। जब हम परमाण व अण जो कि परकृति के विकार हैं व मूल परकृति से सथूल हैं, उनहीं को नहीं देख पाते तो परमाण व परकृति से भी सूकषम पदारथ ईशवर व जीवातमा को कदापि नहीं देख सकते। हां, विवेक से इनहें जाना जा सकता है और यही इनको देखना कहलता है। ईशवर व जीवातमा के असतितव से इनकार करना, यह बदधि की संकीरणता व घोर अजञानता है। इस बरहमाणड और पराणियों के शरीरों को देख कर ईशवर व जीवातमा का असतितव निभरानत रूप से सिदध है।

हम जब सृषटि के आरमभ में पहंचते हैं तो हमें जञात होता है कि आरमभ में ईशवर ने अमैथनी सृषटि की थी जिसकी चरचा हम पहले कर चके हैं। ईशवर ने ही इस चेतनारहित जड़ बरहमाणड तथा चेतनायकत पराणी जगत को बनाया है। पराणी जगत में सभी पराणियों की आंखे, मंह, वाणी, जिहवा, शरोतर या कान के साथ शरीर के अनदर बदधि भी बनाई है जो सतय व असतय व करणीय व अकरणीय का विवेचन करती है। जो सतता अदृशय रहकर बरहमाणड व मनषयों के शरीर बना सकती है वह सतता मनषय को बोलने व भाषा का जञान भी दे सकती है जिससे मनषय बोलने में समरथ होता है। यदि सा न होता तो शायद ईशवर ने मनषय के शरीर में पांच जञानेनदरियों की रचना न की होती जिसमें कान व मंह के अतिरिकत अनय इनदरियां भी सममिलित हैं। अब विचार करते हैं कि आतमा में विदयमान ईशवर, भाषा का जञान करा सकता है या नहीं? हम जानते हैं कि बोलने वाले की सनने वाले के कान से जितनी अधिक दूरी होती है, उतना ही अधिक जोर से बोलना होता है और यदि बोलने वाला कान में बोले तो बहत धीरे से बोलने पर भी वयकति सनकर सम लेता है। बोलना तब होता है जब बोलने वाला और सनने वाला दोनों अलग-अलग हैं। अब यदि बोलने वाला आतमा के भीतर है तो बोलने की आवशयकता नहीं है। आतमा में उसके दवारा परेरणा कर देने मातर से ही पहले आतमा को जञान होता है और जञान का उपयोग कर मनषय भाषा को बदधि व मन के सहयोग से मंह दवारा उचचारित कर सकता है। हमें जब कछ बोलना होता है तो उसमें हम अपनी आतमा, मन व बदधि के साथ मंह का परयोग करते हैं। इसी परकार आतमा में उपसथित यदि ईशवर जञान परदान करता है तो आतमा से वह मन को, बदधि को परापत होकर मख के अंतर में निहित वाणी दवारा उचचारित हो सकता है। इस बात को हमें जानना व समना है। आतमा में विदयमान वा उपसथित जञान को वाणी दवारा वयकत करना वा बोलना समभव है। यह असमभव नहीं है। सा ही सृषटि के आरमभ में अमैथनी सृषटि में हआ था या हआ होगा। ईशवर ने आदि सृषटि में परथम चार ऋषियों की आतमाओं में वेदों का जञान, भाषा जञान सहित दिया था और बोलने की परेरणा भी ईशवर ने ही की थी। हम जानते हैं कि जञान का आधार भाषा होती है। यदि भाषा न हो तो जञान हो ही नहीं सकता। वेदों का जञान भी संसकृत भाषा में है और इस कारण संसकृत का ही जञान ईशवर ने सृषटि के आरमभ में कराया था। यह समभावना है कि भाषा का जञान अरथात बोलने के लि भाषा का जञान तो सभी अमैथनी सृषटि में उतपनन मनषयों को कराया गया था। इसका कारण हमारा यह चिनतन है कि यदि ईशवर सभी को बोलना न सिखाता तो हम ऋषियों से जञान भी परापत नहीं कर सकते थे। पहले भाषा पढ़़ते जिसमें काफी समय लगता। समभवतः कामचलाऊ  भाषा के जञान के लि क-दो सपताह तो लग ही जाते। इस अवधि में मनषय अपना सामानय वयवहार कैसे करते? इसका उततर नहीं मिलता है। कया बिना भाषा के जञान के मनषय दो-चार दिन भी अपना निरवाह कर सकते हैं, वह भी तब, जब उनका पालन करने के लि उनके माता-पिता या कोई अभिभावक न हो। हमें लगता है कि यह समभव नहीं है। अतः यह सवीकार करना पड़ता है कि ईशवर ने जब मनषयों को जीवित जागृत बना दिया तो उनके करियाशील होते ही उनहें परमातमा ने भाषा व सामानय वयवहार का जञान भी दिया।

भाषा के विषय में हमारा चिनतन बताता है कि सृषटि के आरमभ में जब मनषय उतपनन ह तो उनहें बोलने के लि भाषा की आवशयकता थी। उस समय यदि ईशवर उनहें भाषा का जञान न कराता तो वह सवयं व कालानतर में भाषा को उतपनन या उसकी रचना नहीं कर सकते थे। इसका कारण है कि भाषा के लि वाकय, उससे पूरव शबद, शबद से पूरव अकषर या सभी परकार की धवनियों के लि क क अकषर व उन धवनियों को जोड़ने के लि उन धवनियों के संकेतक अकषर व मातराओं की नयूनतम आवशयकता होती है। कया वह मनषय व मनषय समूह जो भाषा व जञान से पूरणतः शूनय हैं, अकषर व शबदों की रचना कर सकते हैं? इसके सभी पहलओं पर विचार व चिनतन करने पर जञात होता है कि मनषयों के लि यह समभव नहीं है। इसका कारण यह है कि अकषरों को निरधारित करने के लि भी भाषा का जञान होना आवशयक है और कयोंकि आदि काल में अमैथनी मनषयों को भाषा का जञान नहीं है, तो वह अकषरों के निरधारण का कारय कदापि नहीं कर सकते और न हि किस अकषर के लि ताल, जिहवा, कणठ, नासिका आदि का उचचारण में कैसे परयोग करना है, यह ही जान सकते हैं। इस सथिति में ईशवर का होना सतय सिदध होने के साथ यह परमाण कोटि का विचार, मानयता या सिदधानत है कि अकषर, मातराओं, शबद, वाकय वा भाषा का जञान वं अनय सभी विषयों का जञान जिसकी मनषय के जीवन के लि अपरिहारय आवशयकता है, वह सतय, चितत, आननद सवरूप, सरववयापक, निराकार, सरवजञ, सरवशकतिमान, सृषटिकरता ईशवर से परापत होता है। यह भी धयान देने योगय है कि जिस ईशवर व सतता ने इस संसार को बनाया है उसे भी तो विजञान व जञान की आवशयकता थी। जञान कयोंकि भाषा में ही निहित होता है, अतः ईशवर को भी अपने सभी कारय करने के लि क भाषा की आवशयकता होती है। यदि सा न हो अरथात ईशवर की अपनी भाषा न हो तो वह जञानहीन ठहरेगा। तब इस संसार की रचना ईशवर दवारा कदापि समभव नहीं हो सकती, सा हमारा अनमान व विवेक कहता है। ईशवर की वह भाषा कौन सी है तो इसकी क ही समभावना है कि ईशवर की भाषा वही भाषा ‘‘संसकृत’’ है जो उसने वेदों का मनषयों को जञान देने के अवसर पर परयोग की है। हम इस विषय में सभी विदवानों के विचार आमंतरित करते हैं।

हमारे इस लेख का परयोजन यह बताना है कि परतयेक भाषा अपनी किसी पूरव भाषा में अपभरंस के दवारा या विकारों व सधारों व कई भाषाओं का समनवय कर बनाई जाती है। पीछे चलते चलें तो क अनवसथा दोष आता है। वहां केवल क ही भाषा होती है। वह भाषा वेदों की भाषा अरथात संसकृत है। वह संसकृत मनषयों दवारा बनाई गई नहीं है। वह परमातमा परदतत भाषा है जिसका विसतार पूरवक उललेख पूरव पंकतियों में किया जा चका है। हम आज भी देख रहे हैं कि सृषटि को बने ह लगभग 2 अरब वरष वयतीत होने को हैं और इतनी लमबी अवधि में, आज तक भी संसार के सभी मनषय संसकृत से उतकृषट भाषा नहीं बना सके। संसार की सभी भाषाओं में अनेक दोष हैं जिनहें दूर नहीं किया जा सका परनत संà¤

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