Arya Samaj Foundation Day

Celebration of Foundation of Arya Samaj
09 Apr 2024
Chaitra Shukl 1, 2081
: 09 Apr 2024
: Gazetted

चैतर शकला पंचमी संवत १९३२
(शनिवार, १० अपरैल सन १९७५)
आननद सधासार दयाकर पिला गया।
                                  à¤­à¤¾à¤°à¤¤ को दयाननद दबारा जिला गया।।                         

डाला सधार वारि बढ़ी बेल मेल की।
           à¤¦à¥‡à¤–ो समाज फूल फबीले खिला गया।।
                                                                        -महाकवि शंकर कृत
 

विकरम की 19वीं शताबदी के वृदध भारत में वैदिक धरम, भारतीय सभयता और समाज की अभूतपूरव कलपनातीत तथा विलकषण अवसथा हो गई थी। क ओर शदध, सनातन, सरल वैदिक धरम की पवितर मनदाकिनी सैकड़ों यगों के असंखय समय में परवाहित रह कर कपोल-कलपित, नाना नवीन मतों के आडमबरों से उसी परकार कलषित बन गई थी। जिस परकार गंगोतरी से चली हई भागीरथी की पणयसलिला, विशदध धारा विसतृत विविध भूभागों में भरमण करके और और मलीन जलवाली अनेक नदियों से मिलकर गंगासागर में गदली और गरहित हो गई हैं। सनातन वैदिक धरम के जञान, करम और उपासना के तीनों काणडों का सथान मिथयाविशवास, तानतरिक जादू टोने और पूजा ले लिया था। परमतततवविवेचन के सथान में मिथयाविशवासमूलक विविध मतवाद मनषयों के विचारों पर अधिकार पा गये थे। मनषय, वैदिक करमकाणड के सारभूत पंचमहायजञों को तयागकर मारण, मोहन, उचचाटन, वशीकरण की सिदधि में अपने अमूलय समय को बिताने लगे थे। सरववयापक परमपिता की उपासना से विमख बन कर कपोल कलपित आधनिक देवी-देवताओं की पूजा में ततपर थे। देवसथान भंग, चरस आदि मादक दरवयों से उनमत, दराचारी, निरकषर भटटाचारय पजारियों (पूजा के शतरओं) से भरे रहते थे। जनता आचारय आदि सचचे तीरथों को भूल कर जल-सथल आदि को ही तीरथ मान मान बैठी थी। वैदिक वरणवयवसथा बिलकल लपत हो गई थी। उस के सथान में जनममातर के गरवित, गण-करम से रहित परषाधम बराहमणादि वरण के अभिमानी बन गये थे। बरहमचारी और संनयासी नाममातर को शेष रह गये थे, परनत उनका वेश धारण करके लाखों विदयाशूनय, अकरमणय, वकवृतति और बिडालवृति बने ह वंचकजन इस वसनधरा के भार को बढ़ा रहे थे और शरदधाल परजा को दिन-दहाड़े लूट रहे थे। सचचे योगियों का सवरूप तो योगशासतर में ही रह गया था किनत उन के नाम को लेकर भिकषा से पापी पेट को भरने वाले जोगियों की क पृथक जाति (समदाय) ही बन गई थी। सरवमानय आचारय पदवी मृतकों का माल उड़ाने वाले अचारजों को मिल गई थी। अननतः परायः सारे के सारे वैदिक और आरषपरयोगों और नामों का यथासवरूप और परयोजन उलट-पलट हो गया था। सनातन वैदिक धरम का कलेवर ही बदल गया था। शरतियों का नाम ही सनाई देता था, उन का सवरूप लपतपराय हो गया था। जनता में यहां तक मूरखता फैल गई थी कि वे अनय देवताओं के समान वेदों को भी कोई देहधारी देवता समने लगे थे। उनकी मूरतियों तक की कलपना हो गई थी। वेदों के परमाणों के सथान में अनेक आधनिक गरनथ और संसकृत के शलोक और वाकयमातर तक परमाण माने जाने लगे थे। धरम कछ रूढि़यों (रसम-रिवाज) का ही नाम रह गया था यूं कहि कि सरवतर रूढि़यों का ही राजय था।
            दूसरी ओर योरप से उठी हई पाशचातय सभयता की परबल पछवा आंधी पराचीन तथा पूरवीय सभयता का सब कछ उड़ा ले जाकर उस को तितन-बितर कर देने की धमकी दे रही थी। ‘यथा राजा तथा परजाः’ की कहावत के अनसार पराजित भारतीय परजा अपने गौरांग परभओं का रहन-सहन और उठने-बैठने तक की नकल करने में अपना गौरव समती थी। वह उनकी वेश, भूषा, आहार के अनकरण से ही सनतषट न थी, परतयत परतयेक विषय में उन की विचार परमपरा का भी पीछा करती थी। सहसतरों गरनथों से संसथापित और संसिदध सतय भी पाशचातय विदवानों के परमाणों के बिना सिदधानत नहीं माने जाते थे। भूगोल, खगोल, रसायन तथा पदारथविजञान आदि सारी विदयाओं तथा संगीत, शिलप, सथापतय, चितरण आदि समसत कलाओं के आविषकरतता भी पाशचातय परष ही समे जाते थे। पाशचातय सभयता के ही परकाश में समसत विषयों का अवलोकन किया जाता था। उन के ही हेतवाद वा तरकशैली से धरमाधरम की भी परीकषा की जाती थी। शिखा, सूतर, आचमन, मारजन आदि सारे धरमकतय कयों ! और कैसे ! की कसौटी पर कसे जाते थे। सारे धरम-करमों का निदान वा मूल हित वा सांसारिक सख ही माना जाता था।
            जहां क ओर ‘अविदयो वा सविदयो वा बराहमणी मामकी तनः इस नाममातर के बराहमणों के वाकय पर शरदधा रखने वाले, रढि़यों के परम उपासक, पराने आचार-विचार के लोग किसी भी संसकृत के गरनथ वा वाकय को परतयेक परचलित कपरथा और मूरखता का पोषक पषट परमाण मानते थे। वहां पाशचातय शिकषादीकषित और आलोकित नवयवक तरकरहित बरहमवाकय को भी सनने के लि तैयार न थे। परिणामतः नवशिकषित नई पौध के लोग निरीशवरवादी, सनदेहवादी वा भोगवादी बन कर पराचीन सभयता और सनातन धरम से बिलकल विमख हो रहे थे। वे अपने पूरव परषों को वृदध मूरख (Old fool) कह कर हंसते थे।
            अचचजातयभिमानी हिनदू लोगों में कछ तो धन-कलतर के लोभ से और कछ पराण गरनथों की असमबदध कथाओं तथा हिनदू रढि़यों की कठोरता से उदविगर होकर ईसाई आदि विधरमी बनते जाते थे। नीच कही जाने वाली जातों के जन उचचममनय हिनदओं के तिरसकार, अतयाचार और अमानषिक वयवहार से मरमाहात होकर ईसाई पादरियों के परभाव में आकर दिनों-दिन हिनदू समदाय का कलेवर कषीण और ईसाई मत का शरीर पीन बना रहे थे और परातः समरणीय शरी राम और कृषण की निनदा से निज जिहवा को अपवितर करते थे।

दूसरी ओर बहत से हिनदू नितय परति मसलमानों के फनदे में फसते थे। देववाणी वा आरय भाषा (हिनदू) का पठन परायः परोहितों का ही काम रह गया था। अनय वयवसायी वा कारबारी लोग महा महिमामय मौलवियों की पदचरया और फारसी भाषा की आराधना को ही अपना अहोभागय और गौरववरधक समते थे। उस समय जालसाजी की जड़ और सरपाकार फारसी लिपि से अनभिजञजनों को सभयता की परिधि से बाहर समा जाता था। सरवगण आगरी देवनागरी की ‘हिनदगी’ कह कर निनदा की जाती थी। मौलवियों के अहरनिश के सहवास से फारसी पढ़े ह कई परष तो खललमखलला मसलमानी मत में दीकषित हो जाते थे और शेष सारे आचार-विचारों से मसलमान अवशय बन जाते थे। इसलि ‘फारसी पढ़ा आधा मसलमान’ की कहावत परचलित हो गई थी। उन दिनों वैदिक धरम का विकृत रूप ‘हिनदूमत’ सा कचचा धागा बन रहा था कि उस को जो चाहता था क टके से तोड़ सकता था। वह ईसाई वा मसलमान के छ ह जलमातर के पान से सदा के लि विदा हो जाता था और इसलि हिनदू समदाय ईसाई मसलमानों के लि सलभ भोजन वा सवाद गरास ( तर लकमा ) बन रहा था। फलतः गो और बराहमण के रकषकों के समूह का परतिदिन हनास हो रहा था।
            इस परकार नितय परति कषीण-कलेवरा आरयजाति मृतय के मख में जा रही थी। पराचीन आरयसभयता पग-पग पर पराभव पाकर अपने पराचीन वैभव और महिमा को खो रही थी। जो आरयजाति और वैदिक धरम ८०० वरष तक के मसलमानी अतयाचारपूरित शासन और तलवार से नषट न हो सका था, वह अब पाशचातयों के सममोहनासतर से महानिदरा में निमगन होने को उदयत था। परनत सब सभयताओं की आदि जननी आरयसभयता और सब धरमो के आदिसतरोत वैदिकधरम की उस परकार पशतलय मृतय करणावरणालय परमपिता को अभिमत न थी, इसलि दयामय ने असीम दया से निज नितयवयवसथानसार इस धरमसंकट के समय धरम की रकषा के लि दयामूरति और आननद राशि ऋषि दयाननद का परादरभाव भवय भारत में किया।
            ऋषि दयाननद की उजजवल जीवनी की पणय-गाथा क पृथक विषय है। यहां उस का वरणन परकरणानतर होगा। किस परकार ऋषि दयाननद ने सब कछ तयागकर सतय संनयासी बनकर पूरणतः सतय विदयाओं के अभयास और भारत के कोने-कोने में परिभरमण के पशचात इस देश की पतित अवसथा का निरीकषण किया और उससे दरवीभूत होकर वैदिक धरम के पररदधाररथ और संसार मातर के परोपकारारथ आरयसमाज की सथापना की। बातें वेद के नामलेवा परायः सभी परषों को विदित हैं। इस समय उसी आरयसमाज की सथापना का विषय परसतत है।
            ऋषि दयाननद ने गर-गवेषणा और अतल अनवेषण के पशचात जिस सनातन वैदिक धरम के सिदधानतों की सथापना की थी। उन के लगातार परचार के लि उनहोंने बहत से शरदधाल धारमिक परषों की सहायता तथा राजय मानय राजा शरी पानाचनद आननद जी की आयोजना के अनसार भारत की परसिदध समृदधिशालिनी समदरतीरवरतिनी ममबापरी (बमबई) गिरगांव में डॉ. मानिकचनद जी की वाटिका में चैतर सदि ५ संवत १९३२ विकरमीय, १७१७ शालिवाहनशक बधवार, तदनसार १० अपरैल सन १८७५ ई. को परथम आरयसमाज की सथापना की। उस के २८ नियम सरवसममति से निरधारित किये गये। इनहीं नियमों में ऋषि दयाननद की आतमा का परतिबिमब और आरयसमाज का उददेशय वरतमान था। आगे चल कर लाहौर आरयसमाज की सथापना के समय इनहीं २८ नियमों को संकषिपत करके समपरति परचलित आरयसमाज के निमनलिखित १० नियमों का रूप दिया गया। बमबई आरयसमाज के नियमों की संखया के अधिक होने का यह कारण था कि उन में आरयसमाज के कारयनिरवाहक उपनियम भी सममिलित थे। लाहौर में उपनियमों को पृथक कर के मूल सिदधानत रूप नियमों को ही मखय दश नियमों के रूप में परचलित किया गया।
आरयसमाज के नियम
1. सब सतयविदया और जो पदारथ विदया से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेशवर है।
2. ईशवर सचचिदाननदसवरूप, निराकार, सरवशकतिमान, नयायकारी, दयाल, अजनमा, अननत, निरविकार, अनादि, अनपम, सरवाधार, सरवेशवर, सरववयापक, सरवानतरयामी, अजर, अमर, अभय, नितय, पवितर और सृषटिकरतता है उसी की उपासना करनी योगय है।
3. वेद सब सतयविदयाओं का पसतक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सनना-सनाना सब आरयों का परम धरम है।
4. सतय के गरहण करने और असतय को छोड़ने में सरवदा उदयत रहना चाहि।
5. सब काम धरमानसार अरथात सतय और असतय को विचार करके करने चाहि।
6. संसार का उपकार करना इस समाज का मखय उददेशय है अरथात शारीरिक, आतमिक और सामाजिक उननति करना।
7. सब से परीतिपूरवक धरमानसार यथायोगय वरततना चाहि।
8. अविदया का नाश और विदया की वृदवि करनी चाहि।
9. परतयेक को अपनी ही उननति से सनतषट न रहना चाहि।
10. सब मनषयों को सामाजिक सरवहितकारी नियम पालने में परतनतर रहना चाहि और परतयेक हितकारी नियम में सब सवतनतर रहें।
            यहां आरय समाज के दश नियमों की वयाखया के लि सथान नहीं है, पर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि आरयसमाज की सथापना से सरववयापक और सरवहितैषी नियमों पर हई थी कि संसार के सब राषटरों और जातियों के निवासी उन पर चल कर सरवदा अपनी उननति कर सकते हैं। आरयसमाज का संगठन भी दूरदरशितापूरवक सी परजासततातमक परिपाटी पर किया गया है कि उस से परतयेक राषटर में, सब परकार की शासन-परणालियों में सरवोततम और सरवसखदायक परजासततातमक शासन का विकास और अभयास (Training) पूरण रूप से हो सकते हैं। आरयसमाज के संगठन में उस के संसथापक महरषि ने अपने वयकति तक के लि कोई विशेष सथान वा पद नहीं रकखा था, वे अपने आप को भी आरयसमाज का क ‘साधारण सदसय’ समते थे।क बार लाहौर आरयसमाज ने जब उन से क अधिवेशन का परधान पद सवीकार करने की परारथना की थी तो उनहोंने यही उततर दिया था कि आप की समाज का परधान विदयमान ही है, वही अपना करतवय पालन करे। क साधारण सदसय के रूप में मैं भी आपके कारय में योग दे सकता हू। आरयसमाज ने भारत के परजासततातमक शासन-परणाली के परचार में बहत कछ सहायता परदान की है। उस ने भारत अनय समपरदायों और मतों को भी संगठित हो कर काम करने की रीति सिखलाई है। और यहां के कई समपरदाय संगठन अब आरयसमाज से भी आगे जाने का परयतन कर रहे हैं। महरषि दयाननद के कई लेखों के देखने से जञात होता है कि उनहोंने आरयसमाज से संसार के उपकार और देशदेशानतरों में वैदिक धरम के परचार की बड़ी-बड़ी आशां बांधी थी। उनहोंने अपनी कोई गददी आदि न बनाकर आरयसमाज को ही अपना उततराधिकारी माना था और उनके उददेशय के साफलय की सारी आशां आरयसमाज में केनदरित कीं। महरषि के सवनामधनय सचचे अनयायी इन आशाओं की पूरति की लि पराण-पण से पूरा यतन कर रहे हैं।
            आरयसमाज से जो आशां की गई थी उन का कछ दिगदरशन और आभास अमरीका के क दारशनिक डॉ कटर ंडरयू जेकसन डेविस की निमनलिखित कवितामय मनोहर पंकयियों से भली परकार हो सकता है-

DR. Andrew Jackson Davis views on the Arya Samaj and its founder.

“I behold a fire, that is universal, the fire of infinite love which burneth to destroy all hate, which dissolveth all things to their purification. Over the fir fields of America,--over the great land of Africa—over the ever lasting mountains of Asia,--over the wide empires and kingdoms of Europe, I behold the kindling flames of the all-consuming all-pruifying, fire. It speaketh at first in all the lowest places; it is kindled by man for his own comfort and grogess, for man is the only earthly creature that can originate and perpetuate a fire, even as he is the only being on earth that can originate and perpetuate words, so he is the first to start the fires of hell in his own habitations, and the first, also to take and obtain for beaven the Promethean fire whereby Plutonian abodes will be purified by love and whitened wisdom.

            Beholding this infinite fire,--which is certain to meet the kingdoms and empires and Governmental evils of the whole enkinding enthusiasm. And I take hold of life with an enkinding enthusiasm. All liftiest mountains will begin to burn, the beautiful cities of the valleys will be consumed, sweet homes and loving hearts will dissolve together, and the good and the evil will interfuse and disappear like dewdrops vanishing in the sun’s golden horns.

            The spirit of man is one fire with the lightning of infinite progeression. Only the spark there of ascend to-day into the heavens. Lambent flames here and there appear in the inspirations of orators, poets, writers of scriptures. To restore primitive Aryan religion to its first pure state was the fire in the furnace called “Arya Samaj” which started and burned brightly in the bosom of that Inspired Soul of God in India, Dayanand Saraswati. From him the fire inspiration was transferred to many noble inflaming souls in theland of Eastern Dreams…………Hindoos and Moslems ran together to extinguish the consuming fire, which was flaming on all sides with a fierceness that was never dreamt of by the first kindly, Dayanand. And Christians, too, whose altar fires and sacrd candles were originally lighted in the dreamy. East joined Moslems and Hindoos in their efforts to extinguish the New Light of Asia. But the heavenly fire increased and propagated itself.”


 

डॉ. नडरयू जैकसन डेविस के उदगारो का अनवाद


 

‘‘मैं क सी अगनि को देखता हू जो सरववयापक है, वह अपरमेय परेम की अगनि है, जो सरव विदवेष को भसमसात करने के लि परजवलित हो रही है और सरववसतजात को पवितर बनाने के लि पिघला रही है। अमरीका के परशसत कषेतरों, अफररीका के बड़े सथलों, शिया के शाशवतिक परवतों, योरप के विशाल राजयों और राषटरों में सरवनाशन सरवपावन, इस पावक की परजवलित जवालां मे दिखाई देती है, मनषय उस को अपने सख और उननति के लि परकाशित करता है। कयोंकि केवल मनषय ही सा पारथिव पराणी है, जो अगनि को परजवलित करके उसी परकार सथिर रख सकता है। जैसा कि केवल वह ही (मनषय ही) धवनि वा शबदों को जनम देकर सथिर रख सकता है। इसलि मनषय ही अपने गृहों में सब से परथम नारकीय अगनियों को परजवलित करता है। (दवेषों को भड़काता है) और वही सरवपरथम सवरग से परोमीथस की उस अगनि को परापत करने वाला और बढ़ाकर रखने वाला है, जिस से कि पातालीय (नारकीय) अनधकारपूरण गृह-परेम से पवितर और मेधा से परकाशित हो सकते हैं।

इस अननत अगनि को, जो कि निशचय रूप से संसार भर के राजयों सामराजयों और शासन समबनधी दोषों का सामना करेगी (पिघला डालेगी), देखकर मैं अतीव हरषित हो रहा हूं, और जाजवलयमान उतसाह के साथ जीवन धारण कर रहा हू। सब उचचतम परवत जल उठेंगे। उपतयका के सारे सनदर नगर नषट हो जायेंगे। मनोहर गृह और परेमलपत हृदय पिघल कर क हो जायेंगे और सूरय की उजजवल किरणों के सामने ओस के बिनदओं के समान पणय और पाप सममिशरित क होकर अनतरधान हो जायेंगे।

अननत उननति की विदयत से मनषय का हृदय विकषबध है। आज केवल उस के सफलिंग (चिनगारियां) आकाश की ओर उड़ रहे हैं। वागमियो, कवियों और पवितर पस