आजकल देश में बेटी बचाओं आनदोलन आरमभ हआ है। माता के गरभ में पल रही बेटियों को जनम लेने से पूरव ही मार दिया जाना इस आनदोलन का कारण है। इसी पृषठ भूमि में हमारे बनधओं की विकृत मानसिकता और सामाजिक परिसथितियां हैं। इसका क अनय कारण यह भी है कि हमारे देश में लाखों बेटियां को उनके माता-पिता अपना भारी वययसाधय दायितव समते हैं। मैं सवयं तीन पतरियों का पिता हूं और मे न केवल अपनी बेटियों पर गरव है। मेरी बेटियां मेरी जिममेदारी नहीं अपित मेरे लि वरदान व सरवोततम पूंजी हैं।  

मेरी इस मनःसथिति व भावना का शरेय महरषि दयाननद सरसवती व उनके दवारा सन 1875 में सथापित आरय समाज को है। उनहोंने अपने समय में कैंसर रोग के समान भयानक रूप से समाज को कमजोर करने वाली सभी सामाजिक बराईयों के विरूदध यदध छेड़ा था। महरषि ने सभी मनषयों व सतरी परूषों की समानता, सतरियों की शिकषा व उनके परिवार के संचालन में उनकी परमख भूमिका को सही सनदरभ में परसतत कर करानति की थी जबकि भारत में महिलाओं की शैकषिक व सामाजिक सथिति अतयनत दयनीय थी। उन दिनों वह अपने घरों में भी गलामों की भांति रहा करती थी। महिलाओं और दलितों को वेदों के अधययन से रोकने वाली अनधविशवासों से पूरण वयवसथा को सवामी जी ने अपने पैरों तले रौंद डाला और उदघोष किया कि सभी मनषयों को पवितर वेदों के पढ़ने व उचचारण करने का सबके समान अरथात बराहमणों के ही समान अधिकार है। उनहोंने जनम की जाति, ईशवर समबनधी विशवासों, धरम तथा भौगोलिक सीमाओं का अतिकरमण कर सभी को वेदाधययन का अधिकार परदान किया। उनहोंने कहा कि शिकषा सतरियों की सभी समसयाओं के निवारण के लि रामबाण औषधि है। हमारा समाज इस अशिकषा की बीमारी से गरसत होकर दरबल हआ है। महरषि दयाननद को ह 125 वरषों से अधिक वयतीत हो जाने पर अब यह सिदध हो चका है कि उनके इस समबनध में कहे वचन सतय थे। उनके सतरी शिकषा के परति जो विचार थे, उनके भकतों ने उनकी असामयिक मृतय के कछ ही समय बाद पंजाब में परथम महिला विदयालय आरय कनया महाविदयालय, जालनधर की सन 1889 में सथापना कर उसे पूरा किया। इसके बाद उनके अनयायियों दवारा क हजार से अधिक डी..वी. संसथायें वं गरूकल खोलकर देश में सरवतर शिकषा का परचार व परसार किया। यह सभी शिकषा संसथायें उनके सचचे समारक हैं। देश के विकास व उननति में उनके व उनके अनयायियों के शिकषा के परचार व परसार के योगदान को अनदेखा नही किया जा सकता। मैंने उनसे सीखा कि माता व पिता को अपनी पतरियों का धयान रखने वाला सचचा सहृदय मितर व संरकषक होना चाहिये और यह भी जाना कि हम अपनी पतरियों को सबसे बड़ा यदि कोई उपहार दे सकते हैं तो वह शिकषा वं अचछे संसकार ही हैं। इस कारय के लि माता-पिता के घर से अचछा कोई विदयालय नहीं हो सकता जहां कि सनतान के अभिभावक माता-पिता धारमिक व शिकषा व संसकारों से अलंकृत व सभूषित हों। आज यदि मैं घर में बैठा हआ या यातरा करता हआ भी ईशवर से जड़ा हआ रहता हूं तो यह रभी सवामी दयाननद जी का ही परभाव है जिनहोंने बताया और समाया कि ईशवर निराकार, अजनमा सरववयापक और सरवानतरयामी है। उसको कहीं बाहर ढूंढना नहीं है अपित वह हमारे अनदर ही है और हमें केवल उसे अपने अनदर, हृदय में ही ढूंढना है।

क अनय लाभ जो मे उनकी शिकषाओं से हआ वह यह है कि सतय को सरवोपरि सवीकार करना और तरक से सतय की पहचान करना। इससे मैं सभी परकार के अनध विशवासों से मकत हो गया। मे किसी धरमगरू या जयोतिषी के पास किसी अचछे दिन या महरत पूछने जाने की आवशयकता नहीं है। मेरे लि सभी दिन क समान व अचछे दिन हैं और जीवान का वरतमान समय सबसे अचछा समय है। जब कोई वयकति सतय को सरवोपरि मान कर उसे अपने जीवन में धारण करता है तो वह सवतः निरभय व निडर हो जाता है। यह सतय ही जीवन में परसननता, सख व आननद का कारण है। अनत में मैंने उनसे यह जाना कि सभी मनषय जनम से समान हैं। मनषय विदया अधययन कर व शभ गणों को धारण कर ही बराहमण बनता है जिसमें उसके जनम,  माता-पिता व कल आदि का महतव नहीं होता। इस जञान ने मे सभी परकार के पकषपात व अनयायपूरण वयवहार से बचाया है व मे सकषम भी बनाया है।

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