तेलुगू भाषा के कवि और वामपंथी लेखक वरवर पेंड्याला राव को पुणे पुलिस ने हिरासत में ले लिया है। पुलिस का कहना है कि वरवर राव के खिलाफ संदिग्ध पत्र, ईमेल्स और दस्तावेज मिले जिसमें इनका माओवादियों से संबंध होने के सबूत हैं। ज्ञात हो इस साल जनवरी में महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में पांच वामपंथी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था जिनमें से एक वरवर राव भी थे।

31 दिसंबर 2017 को जब भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं सालगिरह थी, तब भीमा कोरेगांव शौर्य दिन प्रेरणा अभियान के बैनर तले कई संगठनों ने मिलकर एक रैली आयोजित की थी, जिसका नाम यलगार परिषद रखा गया था। शनिवार वाड़ा के मैदान पर हुई इस रैली में लोकतंत्र, संविधान और देश बचाने की बात कही गई थी। पूरे देश में यह लहर इस प्रकार चलाई गयी थी कि दलितों पर अत्याचार हो रहे है, लोकतन्त्र खत्म हो चुका है, संविधान तबाह और देश में असहनशीलता के बोलबाले के साथ देश का अल्पसंख्यक समुदाय डर के साये में जी रहा है। इस आवाज को मुखर करने में वामपंथी दल और इनके कलमकार सबसे आगे रहे थे।

जबकि असल में ऐसा कुछ नहीं था भारत एक सौ तीस करोड़ से ज्यादा की आबादी का देश है। यहाँ बहुतेरे धर्म, पंथ, सम्प्रदाय जातियां और उपजातियां निवास करती है। इतने भारी भरकम जनसमुदाय वाले देश में किसी भी प्रकार की कोई घटना न हो इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता है। मैं इस बात से भी कदापि सहमत नहीं हूँ कि धार्मिक द्वेष या जातीय झगड़ा यहाँ बिल्कुल भी नहीं है। पर दो लोगों या परिवारों के झगडे को जातीय रंग देकर पूरे देश में नफरत के तौर पर परोसकर जातीय हिंसा का नाम देना कहाँ तक जायज है?

आज भारत भर के बुद्धिजीवी वामपंथी देश में किसी भी घटना पर लोकतंत्र की समाप्ति और संविधान की बर्बादी की बात करते हैं पर जहाँ-जहाँ विश्व में वामपंथियों द्वारा लोकतंत्र और संविधान बंदी बनाया गया वहां-वहां ये मौन होते दिख जायेंगे। ज्यादा दूर न जाकर अपने पड़ोसी देश चीन में ही देख लीजिये एक समय लाखों लोगों ने अपने प्राण देकर चीन में राजशाही को हटाकर ही वामपन्थी शासन चुना था लेकिन, क्या उन्हें अन्दाजा रहा होगा कि, वामपन्थ की नियति राजशाही नहीं बल्कि तानाशाही है। आज वहां हमेशा के लिए राष्ट्रपति के तौर पर शी जिनपिंग को चुन लिया गया है। किन्तु इसके खिलाफ विश्व भर के वामपंथी लेखक मौन है जबकि भारत के संदर्भ में देखें तो सुचारू रूप से चल रही एक लोकतान्त्रिक और जनता को जवाबदेह सरकार के खिलाफ हर रोज ये लोग लोकतंत्र और संविधान को खत्म करने के अनर्गल आरोप जड़ते रहते है। इसलिए भारतीय सन्दर्भ में वामपन्थ की अवधारणा को ठीक से समझे जाने की जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।

पिछले दिनों केरल के इडुक्की जिले में सीपीएम की बैठक के बाहर उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग के पोस्टर देखने को मिले थे। इस एक उदहारण से आप समझ सकते है कि क्या विश्व में कोई लोकतंत्र समर्थक नेता या दल एक तानाशाह को अपना हीरो मानेगी? इससे साफ पता चलता है कि भारत और दुनिया के लिए लोकतंत्र का मतलब जनता के जरिए चुनी सरकार का राज होता है जबकि, वामपन्थी, विचारधारा में लोकतंत्र का मतलब उसी विचार के तानशाह शासकों को सत्ता चलाना होता है।

दुनिया में कोई भी नई विचाधारा जब आगे बढती है तो उसके साथ जनभावना का ज्वार होता है एक समय ऐसा ही हाल मार्क्स के इन दत्तक पुत्रों के साथ था। रूस, चीन क्यूबा और भारत समेत अनेक देशों में इस विचारधारा का प्रचार-प्रसार हुआ, सत्ता और सिहांसन बदले एक भीषण रक्तपात के बाद अनेकों देशों में वामपंथी सरकारें बनी, पर वामपंथी बस मार्क्स, लेनिन, माओ, स्टालिन और एंजेल्स के विचारों की प्रशंसा में डूबे रहे। पश्चिम बंगाल में कई दशक राज किया पर क्या बदल पाए किसी के पास कोई आंकड़ा नहीं है। आज जब मार्क्स, लेनिन, माओ की प्रसंशा का असर लोगों पर नहीं होता दिख रहा है तो अचानक से इन लोगों को सत्ता में पैर जमाने के लिए आंबेडकर साहब की याद आ गयी और देश में किसी भी हिंसा को जातीय रंग देकर आंबेडकर के सहारे सत्ता की सीढी चढने की जुगत में लग गये। आखिर इस प्रश्न का जवाब कौन देगा कि इन मार्क्स और माओं की संतानों को भारतीय संविधान निर्माता अंबेडकर को अपने आदर्श के रूप में स्वीकार करने में कई दशक क्यों लग गए?

सब जानते हैं सोवियत संघ की जनवादी क्रांति ने रूस से जारकालीन तानाशाही का अंत किया था किन्तु उस तानाशाही के अंत के बाद रूस में क्या हुआ था? क्रांति के बाद सत्ता को कम्युनिस्ट नेताओं ने शिकंजे में लेकर दमन किया। इतिहास कहता है कि अकेले तीन दशकों तक स्टालिन की सत्ता के दौरान ही लाखों लोगों को बंदी बना कर साइबेरिया के कठोर ‘श्रमशिविरों’ में सड़ाया गया। आखिर कुछ तो कारण रहा होगा कि इस विचारधारा के पक्षधर वामपंथियों द्वारा पूर्वी जर्मनी में बनायी गयी बर्लिन दीवार को 1989 में जनता ने धक्के मार कर गिरा दिया जिसके बाद अनेक देशों ने इस कथित समाजवाद को कूड़ेदान की नियति प्रदान कर दी।

कभी सामाजिक-न्याय और समानता के नाम सत्ता का रस पीने वाले इन लोगों के पास आज सिर्फ कुछ प्रकाशनों, अखबारों और स्कूल कालेज की राजनितिक हार जीत के अलावा कुछ नहीं बचा. हर एक मुद्दे के बाद जंतर-मंतर, पर धरने प्रदर्शन, डरावने नारे और मीडिया स्टूडियो में बैठकर दलित और अल्पसंख्यक राग गाने तक ही ये विचारधारा सिमट गयी है। जो एक बार फिर लेखक वरवर की गिरफ्तारी के बाद देखने को मिल सकता है किन्तु अब वामपंथियों को धरने प्रदर्शन नहीं बल्कि आत्मावलोकन करना चाहिए कि वामपंथ की विचारधारा ने दुनिया को क्या दिया। हो सकता हैं इन लोगों की नजर में वरवर राव अच्छा लिखते हों, जीने और लिखने के लिए लेखक को पैसा भी चाहिए लेकिन किसी भी सूरत में उसे पैसा कमाने के लिए जीना और लिखना नहीं चाहिए।

 

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