मादक द्रव्यों वा नशा का सेवन व्यक्ति, समाज व देश का प्रबल शत्रु है। आज बहुत से मनुष्य अनेक कारणों से नशीले वा मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक रोग है। सभी जानते हैं कि नशा मन, मस्तिष्क, बुद्धि, अन्तःकरण, शरीर व स्वास्थ्य को बिगाड़ता है। इससे किसी मनुष्य, स्त्री वा पुरुष को कोई लाभ नहीं होता, हानि सबकी निश्चित रुप से होती है। इसी कारण वेदों व हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने अपने विस्तृत वैदिक साहित्य में कहीं भी मादक द्रव्यों के सेवन का विधान व कथन नशा करने के लिए नहीं किया है। ऋषि दयानन्द वेदों व वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ हुए हैं। उनका वचन है कि मादक द्रव्यों वा नशा करने से मनुष्य की बुद्धि योग-विद्या जैसी सूक्ष्म व अन्य गहन विद्याओं को जानने व उसको अभ्यास द्वारा सिद्ध करने में असफल व अकृतकार्य रहती है। हमारी दृष्टि में नशे का सेवन मनुष्य जीवन का हानिकारक कार्य, व्यवहार अथवा आदत है जिसका सेवन करने वाला मनुष्य समाज में अपमानित होता है, उसके शारीरिक बल वा श्रम की सामर्थ्य कम होती है और वह कुछ समय बाद अनेक रोगों से ग्रसित होकर दुःखी व सन्तप्त रहते हुए संसार छोड़ कर चला जाता है। कर्मफल के सिद्धान्त से भी इस घटना का विश्लेषण करना उचित है। विश्लेषण करने पर यह पाया जाता है कि, नशा करने से मनुष्य को इस जन्म में तो आर्थिक हानि, सामाजिक अपमान, अल्पायु व शारीरिक रोगों से त्रस्त होना ही पड़ता है अपितु इसका कुपरिणाम उसे ईश्वर की व्यवस्था से भावी जन्म-जन्मान्तरों में भी भोगना पड़ता है। शराब व मादक द्रव्यों के सेवन का कुपरिणाम यह भी देखा गया है कि नशे का सेवन करने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, माता-पिता व बच्चों का भली प्रकार से पालन पोषण नहीं कर पाता। उसके मेधावी बच्चे साधनों के अभाव में सुशिक्षित न होकर अपने ही कम प्रतिभावान् साथियों से पिछड़ जाते हैं, जिसका परिणाम बच्चे व परिवार-जन तो भोगते ही हैं, सारा देश व समाज भी भोगता है क्योंकि यही बच्चें भविष्य के देश के सैनिक, सचित्र डाक्टर-इंजीनियर-व्यापारी-अध्यापक-नेता-वैज्ञानिक आदि हो सकते थे। इसके लिए न केवल हमारा धार्मिक व सामाजिक वातावरण ही दोषी है, वहीं इसके लिए हमारी सरकारें भी उत्तरदायी हैं जो राजस्व के उलट-फेर में इसको प्रोत्साहित करती हैं। हमें यह भी लगता है कि सृष्टि के आदिकाल से महाभारतकाल तक के वैदिक राज्य में कभी भी इस प्रकार के नशीले पदार्थों का सेवन करने की अनुमति व व्यवस्था नहीं थी। महाभारत काल के बाद अव्यवस्था होने पर ही सभी बुराईयों का सूत्रपात हुआ जिसमें से एक नशा करने की प्रवृत्ति व सेवन भी हो सकता है परन्तु इसका विस्तार देश में विधर्मियों के आक्रमण व उनकी सत्ता स्थापित होने पर अधिक हुआ।

नशे की आदत मनुष्यों को अपराधी प्रकृति व प्रवृत्ति का बनाती है। नशा करने वाले व्यक्ति को नशीले पदार्थ खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होती है। उसे अपनी अन्य सुख-सुविधाओं के लिए भी धन चाहिये होता है, उसके पास धन होता नहीं है, अतः उसे अपराधों में प्रवृत्त होने के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग दिखाई नही देता। वह नशीले पदार्थ एवं अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिस्थिति-वश नाना प्रकार के अपराध करता है जिसमें चोरी, अपहरण, बलात्कार सहित नशे के प्रभाव से चरित्र हनन के कार्य, हत्यायें, भ्रष्टाचार व अन्य अनेक अपराध सम्मिलित हैं। इसका प्रभाव उस व्यक्ति के जीवन पर तो पड़ता ही है, इसके साथ उसका परिवार भी सारा जीवन उसके इस बुरे काम का फल भोगता है। यदि नशा करने वाले दोषियों में शामिल व्यक्तियों पर विचार करें तो शराब व मादक द्रव्यों का सेवन करने वाला व्यक्ति तो दोषी है ही, वह लोग जो इस नशे करने व कराने के कार्य में किसी न किसी रूप में सम्मिलित हैं, वह सभी दोषी होते हैं। हमारी व्यवस्था में शराबी व्यक्ति को ही दोषी माना जाता है उसके सहयोगी अन्य व्यक्तियों को नहीं। ईश्वर व प्राकृतिक न्याय के अनुसार किसी व्यक्ति को गलत कार्य में प्रवृत्त कराने वाला भी अपराधी ही होता है। हमारे देश में नशीले पदार्थों के सेवन का व्यवहार मुख्यतः विेदेशी विधर्मी हमलावरों व शासकों के द्वारा आया। वह इसका सेवन करते थे और उन्हीं के द्वारा इसे देश की जनता में प्रवृत्त किया गया। हमारा देश राम, कृष्ण, हनुमान भीष्म, युधिष्ठिर, विदुर, भीम, अर्जुन, चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य व महर्षि दयानन्द आदि का देश रहा है जिसमें कोई भी व्यक्ति नशे के सेवन करने वाला नही होता था। महाभारतकाल से पूर्व के प्रायः सभी लोग ईश्वरोपासक होते थे और बाद के भी सभी धार्मिक लोग नशे को पाप जानकर इसका सेवन नहीं करते थे, आज भी नहीं करते। ईश्वरोपासना का वैदिक स्वरूप योग पद्धति है। योग पद्धति में पांच यम और पांच नियमों का पालन करना पड़ता है। नियमों में एक नियम शौच भी है। शौच का अर्थ न केवल शरीर की बाह्य शुद्धि है अपितु आन्तरिक शुद्धि के लिए शुद्ध आहार व भोजन, गोदुग्धादि तथा फलों के सेवन सहित पवित्र विचारों व चिन्तन-मनन से मन को पूर्णतः शुद्ध व पवित्र रखा जाता है जिसमें मांस, मदिरा, शराब, नशे वा मादक द्रव्यों का सेवन का निषेध समाहित है। अतः वैदिक काल में वैदिक राजा की प्रजा का कोई भी नागरिक मादक द्रव्यों का सेवन नशा कदापि नहीं करता था।

हमारे देश में शराब का सेवन करने वाले लोग अधिकांशतः वह हैं जो निम्न वर्गीय होते हैं अर्थात् जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती। यह स्वभाविक है कि ऐसे परिवार अधिक शिक्षित नहीं होंगे क्योंकि आजकल शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है जिसे अब मध्यम व उच्च वर्गों के परिवार ही प्राप्त कर सकते हैं। अतः हमारे निम्नवर्गीय भाई बचपन से ही कुसंगति से ग्रस्त होकर अज्ञानतावश शराब वा नशे का सेवन करने लगते हैं। इससे इनका परिवार रसातल में चला जाता है और सरकार का राजस्व और शराब माफियाओं को लाभ होता है। शराब माफिया यद्यपि देश में उत्पन्न हुए शिक्षित व उच्च आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति होते हैं परन्तु ज्ञान की कमी के कारण यह लोग जान ही नहीं पाते कि यह कार्य देश हित का नहीं अपितु देश का अहित करने वाला है। शराब का सेवन न करने देना वा छुड़ाने का अधिक दायित्व तो सरकार का है परन्तु दुर्भाग्य व अज्ञानता के कारण राजस्व की वृद्धि के लिए सरकारें शराब की बिक्री कराती हैं। शराब से प्राप्त होने वाला राजस्व बहुत निकृष्ट श्रेणी का होता है। इससे देश का भला होने की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसका कारण है कि इसमें करोड़ों गरीब देशवासियों के परिवारों, माताओं, शराबियों की पत्नियों व बच्चों की आहें जुड़ी होती हैं। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक वैदिक विचारों का व्यक्ति यदि राजसत्ता पर आसीन हो तो वह राजस्व के लिए शराब जैसे स्वास्थ्य व चरित्र की हानि करने वाले मादक पदार्थों की बिक्री की अनुमति दे सकता है। यह सब विदेशी शिक्षा-दीक्षा के संस्कार व उसके प्रभाव हैं जो मनुष्य की बुद्धि व आत्मा को विवेक, सत्य व यथार्थ स्थिति से दूर कर प्रलोभनयुक्त हानिकारिक चिन्तन में प्रवृत्त करती है।

हम आर्यसमाज पर दृष्टि डालते हैं तो यह विश्व का एकमात्र ऐसा धार्मिक व सामाजिक संगठन है जिसके लगभग 95 प्रतिशत से अधिक लोग शराब व किसी भी प्रकार के नशे का सेवन नहीं करते। इसका कारण वैदिक धर्म के सिद्धान्त व ऋषि दयानन्द के धार्मिक, सामाजिक, व्यक्तित्व विकास संबंधी विचार व वेदों का कर्म-फल सिद्धान्त है। नशाबन्दी सिद्धान्ततः अनुचित व देश व समाज के लिए हानिकारक व्यवस्था है जो कि तर्क व प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है। शायद् इसी कारण सरकारों द्वारा शराब की बिक्री की छूट देने पर भी सरकार द्वारा ही नशे के विरुद्ध प्रचार कराया जाता है। सरकार द्वारा शराब के सेवन के विरोध में नियम बनाये जाते है, वाहन चलाते हुए नशा करना निषिद्ध है जिससे दुर्घटनायें न हो और नशे से होने वाले कुप्रभावों की चेतावनियां भी दी जाती है। अपराधों में अधिकांश व सभी अपराधी नशे का सेवन करने वाले होते हैं। यहां देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई का उल्लेख भी प्रासंगिक है जिन्होंने बिना किसी की मांग व आन्दोलन के स्वात्मप्रेरणा से अपनी जनतापार्टी की सरकार के द्वारा सम्पूर्ण देश में नशाबन्दी लागू की थी। नशे के कारोबार से जुड़े और व्यवस्था में लगे इस कार्य से अनुचित लाभ प्राप्त करने वाले सरकार के लोगों ने शराबबन्दी को सफल नहीं होने दिया था। यदि उसमें सभी का सहयोग मिलता तो देश को बहुत लाभ होता। आज यह उदाहरण एक इतिहास बन कर रह गया है।

हम समझते हैं कि जिस प्रकार की शिक्षा व मानसिकता वाले नेताओं के हार्थों में सत्ता रहती आ रही है वह लोग शायद कभी शराबबन्दी स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि आजकल वोट प्राप्ति में भी शराब की अहम् भूमिका रहती है। अतः नशाबन्दी वा नशामुक्ति का एकमात्र उपाय जन-जन में नशे के विरोध में प्रचार करना है। वर्तमान के हिन्दुओं के सभी धर्म-गुरुओं वा कथावाचकों को अपनी कथा व अन्य कार्यक्रमों में शराब से होने वाली हानियों पर भी बोलना चाहिये और यह स्पष्ट करना चाहिये कि शराब का सेवन करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता और वह इस कुकृत्य के लिए ईश्वर की न्यायव्यवस्व्था से दण्डित होगा जिससे उसका यह जन्म तो प्रत्यक्ष बिगड़ता ही है उनका परजन्म भी निश्चित रूप से बिगड़ेगा। सौभाग्य से स्वामी रामदेव भी शराब का स्पष्ट शब्दों में अपने प्रसारणों व उद्बोधनों में विरोध करते हैं। इसका देश की जनता पर अनुकूल प्रभाव भी पड़ रहा है। वर्तमान में शराब व मादक द्रव्यों के विरुद्ध सबसे अधिक प्रभावशाली कार्य कोई कर रहा है तो वह केवल स्वामी रामदेव ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं। सभी माता-पिताओं को भी चाहिये कि वह अपनी सन्तानों को कुसंगति से दूर रखें और बचपन से ही शराब के प्रति उनके मन में घृणा उत्पन्न कर दें और इसके साथ उन्हें सच्चरित्रता के उदाहरण भी सुनाये जिससे भावी जीवन में वह शराब व नशे के सेवन से बच सकें। ऐसा होने पर ही देश, जाति व समाज का कुछ सुधार हो सकता है।

शराब व नशे पर चिन्तन करते हुए हम एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां कोई नशा न करता हो। इसके लिए जागृति की आवश्यकता है। जहां नशा न करने वाले विवेकशील व्यक्ति होंगे वहां मांसाहार व अन्य अभक्ष्य पदार्थों का सेवन भी नहीं होगा। ऐसा समाज सभी बुराईयों व अपराधों से मुक्त होगा, इसका अनुमान होता है। ऐसे समाज में सभी स्वस्थ होंगे, रोगियों की संख्या बहुत कम होगी, विवेकशील लोगों का धर्म भी अन्य कोई नहीं अपितु वैदिक धर्म ही होगा। सभी गोपालन करेंगे व गोदुग्ध व इससे बने घृत, दही, मक्खन आदि का सेवन कर सुदृढ़ व बलवान निरोगी शरीर वाले होंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि भी तीक्ष्ण व ज्ञान को ग्रहण करने में प्रबल होगी। ऐसा समाज ही विश्व का ज्ञान, विज्ञान व सभी प्रकार के भौतिक ऐश्वयों से सम्पन्न आदर्श समाज हो सकता है।

दुःख है कि ऐसा समाज संसार में कहीं नहीं है। यदि कहीं बन जाये, तो हमारा अनुमान है कि सारा संसार उसका अनुकरण करेगा। वर्तमान आधुनिक समय में भारत व सभी देशों में ऐसे समाजों की आवश्यकता है। ऐसे समाज को ही हम श्रेष्ठ मनुष्यों का समाज अथवा आर्य-राष्ट्र कह सकेंगे। सारे देश में शराब के दुष्प्रभावों का प्रभावशाली प्रचार हो, सभी लोग शराब से घृणा करें, एक भी व्यक्ति शराब का सेवन न करे, सरकारें इसके लिए मनसा-वाचा-कर्मणा कार्य करें, राजनीति बिलकुल न हो, ऐसा होने पर ही आदर्श व देश का निर्माण होगा। आज ऋषि दयानन्द के समान वेद को ईश्वरीय ज्ञान मान कर शराब व नशा मुक्त भारत का निर्माण करने वाले एक नहीं अपितु सहस्रों शराब विरोधी युवा समर्पित देशभक्तों की आवश्यकता है जिनका मिशन ही शराब व नशीले पदार्थों को देश से समाप्त करना होना चाहिये। हमें यह भी लगता है कि यदि विश्व वैदिक धर्मी आर्य विचारों का बन जाये तो सारे विश्व में शराब, नशा, मादक द्रव्यों का सेवन और सभी बुराईयां समाप्त हो सकती हैं। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

लेख – मनमोहन आर्य

 

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