मनुष्य सुख की तलाश में प्रयत्नरत रहता है। उसे कहीं से सही सलाह नहीं मिलती। वह दूसरे लोगों को देखता है जो बैंक बैलेंस सहित भव्य बंगले, कार, एवं घर में सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से युक्त सामग्री के स्वामी है। मनुष्य को लगता है कि सुख इसी का नाम है और वह भी उनका अनुकरण व अनुसरण करता है। माता-पिता अपनी सन्तानों को इसी भावना से अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। वह समझते हैं कि इंजीनियर, डाक्टर, उद्योगपति, नेता, बिजनेस-मैन, सरकारी अधिकारी आदि बनकर सुखी हो जायेगें। ऐसा प्रायः सभी को लगता तो अवश्य है परन्तु किसी भी धनाड्य व्यक्ति से पूछिये कि क्या वह सुखी है? निश्चिन्त है? सन्तुष्ट है? कल्याण से युक्त है? उसको अच्छी नींद आती है? कोई रोग व शोक तो नहीं है? उसे डर तो नहीं लगता? उसका लक्ष्य क्या है? क्या वह एक सीमा तक सम्पत्ति अर्जित करके पूर्ण सन्तुष्ट, सुखी व शान्ति को प्राप्त कर लेगा? इसका उत्तर देने में उसे कठिनाई होती है। धनवान व सभी सुख-सुविधा की सामग्री से युक्त मनुष्य भी अनेक प्रकार की चिन्ताओं व दुःखों से ग्रस्त है। इसका यही अभिप्राय है कि सम्पन्न व आधुनिक मनुष्य दूसरों को तो सुखी दिखाई देते हैं परन्तु अन्दर से वह असन्तुष्ट एवं अनेक चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं।

अब एक आध्यात्मिक मनुष्य की बात करते हैं। इस मनुष्य ने वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया है। यह जानता है कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति तीन पदार्थों वा सत्ताओं का अस्तित्व है जो अनादि, अनुत्पन्न व अविनाशी है। यह सदा रहते हैं। यह संसार भी प्रवाह से अनादि है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि उसी प्रकार से होती रहती है जैसे कि रात के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि आती है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अनन्त, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सब जीवों वा प्राणियों के सभी कर्मों का साक्षी तथा कर्म-फल प्रदाता है। सुख व दुःख का कारण प्रायः मनुष्यों के शुभ व अशुभ अथवा पाप-पुण्य कर्मों का होना है। आध्यात्मिक मनुष्य स्वाध्याय, ईश्वरोपासना, दैनिक यज्ञ, पितृ व अतिथियज्ञ आदि के महत्व को जानता है और यथाशक्ति इन्हें करता भी है। ऐसा आध्यात्म को जानने वाला व्यक्ति यदि किसी से व्यवहार करेगा तो वह पुरुषार्थ के गुण से युक्त मिलेगा। वह प्रातः 4 बजे ही सो कर उठ जायेगा, ईश्वर का स्मरण करेगा, शौच से निवृत होकर सन्ध्या व हवन करेगा, माता-पिता को प्रणाम व उनके समाचार जानेगा, अपने कार्यालय या व्यवसायिक स्थान पर पुरुषार्थ व सेवा करने जायेगा, घर आकर भी वह स्वाध्याय करेगा, यज्ञ व सत्संग करेगा और मित्रों से सम्पर्क कर उनसे देश व समाज की स्थिति की चर्चा करेगा। वह भ्रष्टाचार की हानियों को जानकर यह दुष्कर्म कभी नहीं करेगा।

रविवार के अवकाश के दिन वह आर्यसमाज मन्दिर जाकर यज्ञ व सत्संग में भाग लेगा। वहां भजन व प्रवचन सुनकर अपनी शंकाओं का समाधान करेगा और वैदिक विद्वानों के अनुसार उनका पालन करते हुए ईश्वर को अपना न्यायधीश व परमेश्वर मानकर सुख व शान्ति से जीवन व्यतीत करेगा। ऐसे व्यक्ति से यदि पूछा जाये कि क्या वह सुखी और सन्तुष्ट है तो वह हां में उत्तर देगा और कहेगा कि परमात्मा की उस पर अतीव व असीम कृपा है। उसे कोई कष्ट या दुःख नहीं है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित धन कमा लेता है। उसका भोजन-छाजन व बच्चों की शिक्षा व चिकित्सा भली प्रकार हो रही है। उसे अधिक धन नहीं चाहिये, बस परिवार में सुख व शान्ति बनी रहे। किसी प्रकार से परिवार के लोगों का अपयश न हो। परमात्मा की दृष्टि उसके परिवार पर बनी रहे। सब स्वस्थ, निरोग, ज्ञान प्राप्ति में संलग्न, ईश्वरोपासना और यज्ञादि में सक्रिय व सावधान रहें। हमने इन गुणों से युक्त अनेक व्यक्तियों को देखा है। हमने यह भी देखा है कि ऐसे सज्जन व्यक्तियों के बच्चे भी ज्ञान व शारीरिक बल आदि की दृष्टि से उन्नत होते हैं। ऐसे परिवारों में सुख व शान्ति की सरिता बहती है। वह शुद्ध शाकाहारी जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोग व परिवार देश व समाज की उन्नति में सहायक होते हैं। राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ की भावनायें उनमें नहीं होती और वह राजनीति में भी सही दल का चयन करते हैं।

हम यहां अपने एक परिचित मित्र की कथा भी वर्णित करना चाहते हैं। यह व्यक्ति 77 वर्ष के हैं। इनके पास न साईकिल है न स्कूटर। प्रतिदिन एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल ही जाते हैं। शायद 15 किमी. प्रतिदिन चलते हैं। सर्दी व गर्मी से भी व्याकुल नहीं होते। यह सरकारी कर्मचारी रहे हैं। इन्हें माह में मात्र 15 हजार रुपये पेंशन मिलती है। दो पुत्र एवं एक पुत्री है। सभी बच्चे विवाहित हैं। बच्चों का भी कुछ भार यह वहन करते हैं। घर में कुछ अतिरिक्त कमरे हैं जिन्हें किराये पर दे रखा है। अपनी पेंशन सहित कुल आय से सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। यह स्वाभिमानी हैं। वर्ष में तीन या चार बार रेल द्वारा देश भर की लम्बी लम्बी यात्रायें करते हैं। अपने अनेक मित्रों का ग्रुप बनाकर उन्हें भी ले जाते हैं। ऋषि जन्म स्थान टंकारा की यह 10 से अधिक बार यात्रा कर चुके हैं। दक्षिण के कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम, रामेश्वरम, बंगलौर, हैदराबार, तिरुपति सहित देश के पूर्वी भागों, पश्चिमी भागों की भी यात्रायें करते रहते हैं। प्रतिदिन योगाभ्यास व सन्ध्या आदि भी करते हैं। अनेक प्रकार के दुःख हैं परन्तु आपको कभी व्यथित नहीं देखा। हंसकर कहते हैं कि जो भी है सब हमारे कर्मों का परिणाम है। इस बात की इन्हें कोई शिकायत नहीं है कि इनके पास बैंक बैलेंस और संसार की अनेक प्रकार की सुविधायें नहीं है। मोबाइल फोन भी बहुत साधारण किस्म का रखते हैं। अपने सभी मित्रों व परिवारों के प्रति इनमें सहानुभूति व सदभावना है। हमें लगता है कि यह सब इनमें वैदिक जीवन पद्धति के गुणों के कारण से है। इनके विषय में हमारा कहना है कि आध्यात्मिक ज्ञान होने से मनुष्य की राह आसान हो जाती है। आध्यात्मिक जीवन जीने वाला मनुष्य दुःखों में भी स्वयं को शान्त व सन्तुष्ट रख सकता है और इसके लिये ईश्वर व अन्य किसी को दोष न देकर प्रसन्न रहते हुए सभी समस्याओं को पार कर लेता है।

आधुनिक जीवन का तात्पर्य अत्यधिक धन कमाना और उससे सुख सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह कर सुख भोगना मात्र ही है। इसमें वैदिक आध्यात्मिक गुणों व नित्य कर्मों का मिश्रण या तो होता ही नहीं या अन्धविश्वास व अज्ञानतापूर्ण ही होता है। धनिक व आधुनिक लोगों का सारा समय स्कूली किताबें पढ़ने, धन कमाने, सुख-सुविधायें एकत्र करने व उनके भोग में बीतता है। वह शुभ कर्मों यथा ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र आदि श्रेष्ठ कर्म, माता-पिता-विद्वानों व वृद्धों का सेवा सत्कार में समय नहीं दे पाते। आजकल तो सरकार ने भी परिवार में केवल पति-पत्नी व उनके बच्चों को ही सम्मिलित किया है। वही माता-पिता परिवार के अंग कहलाते हैं जो आर्थिक दृष्टि से अपने पुत्र पर निर्भर होते हैं। जिनके एक से अधिक पुत्र होते हैं उनकी दशा वृद्धावस्था व रोग की अवस्था में अच्छी नहीं रहती। यदि बच्चे अधिक योग्य होकर विदेश चले गये हों तो माता-पिता का जीवन सुखमय न होकर दुःखमय होता है। इसके अनेक कुपरिणाम सामने आ चुके हैं। माता-पिता मर गये और पड़ोसियों को उनकी अन्त्येष्टि करानी पड़ी। धन व सुविधाओं की वृद्धावस्था में अधिक भूमिका नहीं रह जाती। वृद्धावस्था में तो आवश्यकतायें न्यून व न के बराबर हो जाती हैं। भोजन भी अल्प मात्रा में करके काम चल जाता है।

ऐसी अवस्था में सन्तानों व पौत्र-पौत्रियों आदि का सान्निध्य व सन्तानों का सम्मानपूर्ण एवं सेवायुक्त व्यवहार ही सबसे अधिक सुखदायक होता है। इस सुख में आधुनिकता बाधक होती है। अतः आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा की दृष्टि से देखें तो मनुष्य को आर्थिक समृद्धि के साथ स्वाध्याय, योगाभ्यास, ईश्वरोपासना तथा यज्ञ एवं परोपकार आदि के कार्यों का त्याग न कर इन्हें यथाशक्ति करना चाहिये। अपने माता-पिता सहित परिवारजनों व कुटुम्बियों के प्रति भी उदार व सहयोगी होना चाहिये। जहां तक सम्भव हो माता-पिता को साथ रखें व उनके सुखों पर ध्यान दें। देश व समाज के प्रति जागरुक रहकर अपने मताधिकार का भी सदुपयोग करना चाहिये। किसी विचारधारा के लोगों का समर्थन नहीं करना चाहियें जो धार्मिक भेदभाव व तुष्टिकरण के भावों व विचारों के समर्थक रहे हैं। देश व समाज के प्रति भी विवेकपूर्ण दृष्टि रखनी चाहिये। समाज व देश को हानि पहुंचाने वाले लोगों, संगठनों व सम्प्रदायों की गतिविधियों पर भी दृष्टि रखनी चाहिये और स्वधर्म की उन्नति के लिये सक्रिय रहना चाहिये। यही सन्तुलित व विवेकपूर्ण जीवन कहा जा सकता है। ऐसा करके हम देश व समाज सहित अपने लौकिक एवं परजन्म का हित कर सकते हैं। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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