मनुष्य यद्यपि अन्य प्राणियों की तरह ही एक प्राणी है परन्तु इसकी विशेषता है कि परमात्मा ने इसको बुद्धि दी है, दो पैर चलने के लिये तथा दो हाथ अनेकानेक कार्यों को सम्पादित करने के लिये दिये हैं। मनुष्यों की तरह इस प्रकार की सुविधा अन्य प्राणियों के पास नहीं है। यह सत्य है कि अनेक बातों में पशु व पक्षी मनुष्यों से भी अधिक लाभ में है। पशुओं को अपना जीवन व्यतीत करने के लिये मनुष्यों की तरह न तो बड़े-बड़े सुविधाजनक भवन चाहियें, न धन और न सुख सुविधा की वस्तुयें कार व वस्त्र आदि। सभी पशु जल में तैरना जानते हैं। राजस्थान जहां रेगिस्तान है वहां के भी यदि किसी पशु को किसी नदी या सरोवर में डाल दिया जाये तो वह तैरना जानता है जबकि उसने कभी नदी व सरोवर के दर्शन नहीं किये होते।

 

सभी पक्षी जन्म लेने के कुछ ही दिन बाद उड़ना सीख जाते हैं परन्तु मनुष्यों का पक्षियों की तरह वायु में उड़ना सम्भव नहीं है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि बल से उन सब साधनों को प्राप्त किया है जो अन्य प्राणियों को सुलभ हैं। वह पानी के जहाज या नाव में बैठकर एक प्रकार से पानी पर चल सकता व दौड़ सकता है तथा वायुयानों में बैठकर पशुओं से भी अधिक तीव्र गति से एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा सकता है। मनुष्य के पास बुद्धि है जिसका विषय ज्ञान प्राप्ति व उसका सदुपयोग करना है। जो व्यक्ति ज्ञानहीन होता है उसे बुद्धिहीन कहा जाता है। ज्ञान उसे कहते हैं जिससे किसी भी वस्तु, पदार्थ तथा विषय को सत्य, यथार्थ व वास्तविक रूप में जाना जाये। मनुष्य इस संसार को देखता है तो जिज्ञासा होती है कि यह संसार स्वयं बना या किसी सत्ता के द्वारा बनाया गया है। इस प्रश्न का उत्तर ज्ञान से मिलता है।

 

वर्तमान युग में ज्ञान की पर्याप्त मात्रा में उन्नति हो जाने पर भी शिक्षित व विद्वान कहे जाने वाले बुद्धिजीवियों को भी इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर पता नहीं है। ज्ञान व तर्क आदि से विवेचन करने पर यह ज्ञात होता है कि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो स्वतः बिना बनाये बन जाये। इसलिये इस संसार की रचना भी किसी सत्ता व शक्ति, जो चेतन ही हो सकती है, हुई है। इसका उत्तर न तो विज्ञान की पुस्तकों में और न ही मत-मतान्तरों की पुस्तकों में ठीक-ठीक मिलता है। जो मत-मतान्तर ईश्वर या सृष्टिकर्ता की सत्ता को मानते हैं, वह भी ईश्वर के सत्यस्वरूप से परिचित व सुविज्ञ नहीं है। उनकी मतों की पुस्तकों को देखने पर विदित होता है कि उनके मत में ईश्वर का जो स्वरूप है वह तर्क एवं युक्तिसंगत नहीं है। ईश्वर का सत्य स्वरूप केवल वेद और वेदविश्वासी ऋषियों के ग्रन्थ यथा दर्शन एवं उपनिषदों में ही सुलभ होता है। न केवल ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभावों का ज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य से होता है अपितु अन्य अनेक विषयों जीवात्मा का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव, मनुष्यों के कर्तव्य, उपासना की विधि, वायु, जल व पर्यावरण शुद्धि के उपाय व साधन ‘अग्निहोत्र यज्ञ’ आदि अनेक विषयों का ज्ञान भी वेद एवं वैदिक साहित्य से होता है। अतः वेदों का स्थान मत-मतान्तरों की पुस्तकों से कहीं अधिक ऊंचा है।

वैदिक धर्म की विशेषता यह है कि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का सत्यस्वरूप पाया जाता है। वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से मनुष्यों को प्राप्त धर्म के ग्रन्थ हैं। वेदों में सभी सत्य विद्यायें बीज रूप में पायी जाती हैं। वेदों की भाषा संसार की सभी भाषाओं से श्रेष्ठ होने के साथ सब भाषाओं की जननी भी है। संस्कृत भाषा का शब्द भण्डार भी अन्य सब भाषाओं से अधिक है। वेदों में जो संस्कृत है उसके सभी शब्द रूढ़ न होकर यौगिक व योगरूढ़ हैं।

 

सभी शब्दों की रचना का एक निश्चित कारण व नियम है। संसार की अन्य सभी भाषाओं के शब्द रूढ़ हैं। देवनागरी लिपि भी संसार की सर्वश्रेष्ठ लिपि है। वेदों का अध्ययन करने पर मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है, इसका ज्ञान होता है जबकि मत-मतान्तरों की पुस्तकों से जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य का ज्ञान नहीं होता। वेद ईश्वर, जीवात्मा और मूल-प्रकृति को अनादि व नित्य तथा नाशरहित मानते हैं जबकि मत-मतान्तरों की पुस्तकों में इस विषयक प्रामाणिक ज्ञान का अभाव है। यह सृष्टि किसने बनाई इसका वैदिक उत्तर है कि ईश्वर ने समस्त चराचर जगत व सृष्टि को बनाया है। क्यों बनाया है, इसका भी उत्तर मिलता है।

 à¤ˆà¤¶à¥à¤µà¤° इस सृष्टि को अनादि व नित्य जीवात्माओं को पूर्व कल्प, सृष्टि व जन्मों के कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों का भोग कराने के लिये बनाया है। जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख रूपी फल का भोग कराने के लिये ही परमात्मा ने आत्माओं को नाना प्रकार के शरीर दिये हैं। संसार में जो सुख व दुःख की वस्तुयें हैं, वह भी परमात्मा ने जीवों को उनके कर्मों का फल प्रदान करने के लिये ही बनाईं हैं। अतः इन सब सत्यज्ञानयुक्त बातों के कारण संसार में वेद सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों से अधिक सार्थक, उपयोगी व लाभकारी है। ऋषि दयानन्द ने अपने वेदों के वैदुष्य के आधार पर कहा है कि सभी मत-मतान्तर अविद्या से युक्त हैं और विषसम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं।

 

ऐसा होने पर भी मत व पन्थों के आचार्य अपनी अविद्या एवं स्वार्थों के कारण अपने अनुयायियों को वेद की सच्चाईयों को न तो स्वयं बताते हैं और न उन्हें जानने का ही परामर्श देते हैं। वर्तमान में तो अनेक मतमतान्तरों का उद्देश्य संसार में अपनी जनसंख्या बढ़ाकर उन उन देशों की सत्ता पर कब्जा करना भी है। इन मतों वा इनके अनुयायियों में निर्दोष मनुष्यों के प्रति अहिंसा का भाव भी दृष्टिगोचर नहीं होता जो कि किसी भी धर्म या मत के लिये अनिवार्य होना चाहिये। अतः संसार में ऐसे लोगों को देखकर आश्चर्य होता है कि यह सत्य से अपरिचित होकर अपना अनमोल अमृत जीवन वृथा कर रहे हैं जिसमें यह लोग स्वयं व उनके आचार्य भी समान रूप से दोषी व उत्तरदायी हैं।

 

ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण ऋषियों की मान्यता है कि वेदों का ज्ञान सत्य एवं यथार्थ हैं तथा इसमें मनुष्य के जीवन को व्यतीत करने के लिये सत्य सिद्धान्तों का सभी मनुष्यों की आवश्यकता के अनुरूप ज्ञान व विधान है। मनुष्य का धर्म मानवीय गुणों को धारण करना है।

 

मनुस्मृति में धर्म के 10 लक्षण बताते हुए कहा गया है कि मनुष्य धार्मिक है या नहीं इसकी पहचान धर्म के दस लक्षणों से होती है। यह दस लक्षण धैर्य, क्षमा, इच्छाओं का दमन, चोरी न करना, शरीर, मन, विचारों व भावों की शुद्धता व पवित्रता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धिमान वा ज्ञानवान होना, विद्यावान होना, सत्याचरण करना, क्रोध न करना ही धर्म के दस आवश्यक लक्षण है। यह धर्म के दस लक्षण राम, कृष्ण, दयानन्द जी आदि के जीवन में पूर्णतः विद्यमान थे। आजकल जितने भी मत-मतान्तर हैं, उनमें इन गुणों में से अनेक गुणों का अभाव देखा जाता है। वह इन सभी गुणों को धारण करने पर बल नहीं देते।

 

इन गुणों के विपरीत गुण वा अवगुण भी उनमें पाये जाते हैं तथा उन्हें बुरा नहीं माना जाता। मांसाहार भी ऐसी ही बुराई है। मत-मतान्तरों की पुस्तकों में इन सभी गुणों का उल्लेख नहीं है। देश, समाज व व्यक्तिगत उन्नति का एक नियम है कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। वैदिक धर्मियों को इसका पालन करने की पूरी छूट है व वह ऐसा करते भी हैं। मत-मतान्तरों में अकल अर्थात् बुद्धिपूर्वक सही व गलत मान्यताओं के पक्ष-विपक्ष में सोचने व प्रश्न करने की छूट नहीं है। कहा जाता है कि धर्म में अकल का दखल नहीं है।

 

ऐसी अनेक बातों के कारण केवल वैदिक मत ही सच्चा मानव धर्म सिद्ध होता है। आश्चर्य है कि सच्चे मानव धर्म वैदिक धर्म को मानने वाले संसार में कम लोग हैं और इसके विपरीत मानने वाले लोगों की संख्या कहीं अधिक हैं। इस स्थिति में कोई सच्चा बुद्धिमान व विवेकी पुरुष क्या कह सकता है? ऋषि दयानन्द ने लोगों तक धर्म की सत्य मान्यताओं का प्रचार करने का भरसक व प्राणपण से प्रयत्न किया परन्तु उसका सीमित प्रभाव ही हुआ है। संसार के 90 प्रतिशत से अधिक लोग इस ज्ञान व विज्ञान के युग में भी ईश्वर के सत्य स्वरूप को नहीं जानते हैं। उन्हें ईश्वर की उपासना की सत्य विधि भी ज्ञात नहीं है। हमारे कर्म सत्य पर आधारित होने के साथ परोपकार, देश व समाजहित में होने चाहिये, इसका ज्ञान भी आज के शिक्षित लोगों को नहीं है। सत्य एक होता है परन्तु इसके विपरीत देश में नाना सामाजिक एवं राजनैतिक विचारधारायें हैं। जितने बड़े-बड़े घोटाले होते हैं वह सब शिक्षित व उच्च शिक्षित लोग ही करते हैं।

 

सत्य को ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में सब मनुष्यों को सदैव तत्पर रहना चाहिये, इस नियम का आचरण आज की परिस्थितियों में होना सम्भव नहीं दीखता। सभी मतों के लोगों का आपस में मिलकर सत्य का निर्धारण न करना और अपने पुराने सत्यासत्य विचारों व मान्यताओं को ही मानते जाना, ज्ञान विज्ञान की दृष्टि तथा जीवात्मा व मनुष्य के भावी जीवन अर्थात् पुनर्जन्म के लिये उचित व सुखद नहीं है। मनुष्यों को अपने सभी अच्छे व बुरे अर्थात् सत्य व असत्य कर्मों के फलों को भोगना है। ईश्वर जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। वही कर्मफल प्रदाता व न्यायाधीश है। अतः कर्मों का फल मिलना अनिवार्य है। मत-मतान्तर के आचार्य व उनके अनुयायी यद्यपि सत्यासत्य का विचार नहीं करते, अतः यह आज के ज्ञान-विज्ञान के युग में आश्चर्यजनक है। इसका परिणाम सुखद कदापि न होकर सभी मनुष्यों के लिये असुखद व हानिकर ही होने की सम्भावना है।

 

हमें वैदिक धर्म संसार का श्रेष्ठ व हितकर धर्म प्रतीत होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द जी ने इस बात को स्पष्ट व सिद्ध किया है। इस वैदिक धर्म को स्वीकार न कर मत-मतान्तरों की विषसम्पृक्त अन्न के समान मान्यताओं को ही अधिकांश लोगों को मानना हमें आश्चर्यजनक एवं उनके लिये अहितकर प्रतीत होता है। इसलिये हमने इस विषयक कुछ चर्चा इस लेख में की है। ओ३म् शम्।

 

-मनमोहन कुमार आर्य

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