आजकल मनषय का जीवन इतना वयसत हो गया है कि सवाधयाय के लि समय मिलना कठिन हो गया है। कई दैनिक करतवय मनषय चाहकर भी पूरे नहीं कर पाता हैं। सी सथिति मे ईशवर कया है, कैसा है तथा जीवातमा का सवरूप कैसा है, इसको जानने की किसी को न इचछा होती है न फरसत ही है। इसके दूसरी ओर हमारे गरामीण, अशिकषित व अलप शिकषित व नगरीय बनधओं में भी धारमिक भावनाओं की भूख भरी पड़ी है जिस कारण कछ चालाक व कपटी लोग उनहें अपना शिषय या अनयायी बना लेते हैं। वहां गरूओं दवारा उनहें अपने गरू में अनध-शरदधा रखना सिखाया जाता है और हमें लगता है कि उनके सतसंगों में जाना और वो जो कहें उसे सनना ही उनका धरम बन जाता है। मैं कौन हूं? इस परशन का शासतरीय व सही उततर उनहें वरषों तक गरूओं की सेवा सशरषा करने पर भी नहीं मिलता है। यह बात और है कि यह उततर कठिन नहीं अपति सरल है, परनत सतय जञान देने से आजकल के गरूओं का छदम परयोजन पूरा नहीं होता। यहां इतना कहना ही अभीषट है कि हम और सभी पराणी क जीवातमा हैं जो अति सूकषम चेतन ततव हैं। यह जीवातमा अनादि, अनतपनन, अविनाशी अमर, करमानसार नाना योनियों में जनम लेने वाला, करमानसार सख व दख का उपभोग करने वाला तथा वेदानसार सदकरमो वा सदधरम का पालन कर धरम, अरथ, काम व मोकष को सिदध कर 31 नी 10 खरब 40 अरब वरषों का मकति का सख भोगने वाला है। हमें अपने जीवन से जड़े सभी आधयातमिक व सामाजिक परशनों का उततर महरषि दयाननदकृत सतयारथ परकाश गरनथ से मिल सकता है।

आज के इस लेख में हम ईशवर के क गण, सरवजञता पर विचार कर रहे हैं। सरवजञ का अरथ है कि सब कछ जानने वाला। ईशवर के इस गण व इसके साथ अनय कछ गण व शकतियों के कारण ही वह इस संसार को बनाता, चलाता, परलय करता और पनः सृषटि की रचना करता है। यदि ईशवर में सरवजञता का गण न होता तो यह संसार बन ही नहीं सकता था। हमारे वैजञानिक छोटे से छोटा आविषकार करते हैं तो उसमें बौदधिक जञान की आवशयकता पड़ती है। उस जञान को बहत से शिकषित लोग भी जान व सम नहीं पाते। हम लोग तो बिना सिखाये उन आविषकृत वसतओं का परयोग भी नहीं कर पाते। जिस परकार क साईकिल तक चलाने के लि कई बार अभयास करना पड़ता है और उसको चलाना सिखना पड़ता है, उसी परकार से ईशवर भी वैजञानिकों की भांति अपने सरवजञ जञान से इस संसार की रचना करता है। ईशवर के जञान की यदि बात करें तो संसार के सभी वैजञानिक मिल कर भी इतना जञान नहीं रखते जितना ईशवर अकेला रखता है। यही कारण है कि वैजञानिकों ने कृतरिम पदारथ तो अनेक बना लिये हैं परनत मनषय के शिर का बाल या क नाखून तक का वह आविषकार नहीं कर सके जो ईशवर के बनाये बाल व नाखून के पूरी तरह से समान हो। इस सरवजञ जञान होने के कारण ईशवर ने सूरय, चनदर, पृथिवी, पृथिवीसथ सभी पदारथ, मनषयों व इतर पराणियों के शरीर आदि बनाये हैं और सरवजञता के जञान से ही वह सारे संसार का संचालन आदरश रूप में कर रहा है। ईशवर सरवजञ होने से सृषटि के बारे में हर परकार का जञान रखता है और इसके अतिरिकत अपनी सरववयापकता, अनादिता, नितयता, सरवशकतिमानतव, आननदसवरूप होने के कारण वह सतव, रज व तम गणों वाली सूकषम जड़ कारण रूप परकृति से सृषटि को बनाता है। अतः ईशवर की सरवजञता उसके सरववयापकतव के गण पर भी मखयतः निरभर है। यदि वह सरववयापक न होता तो वह सरवजञ कदापि नहीं हो सकता था। कयोंकि कदेशी अरथात क सथान पर रहने वाली सतता को अपने अनदर व इरद-गिरद का भी जञान होना ही समभव है, अपने से दूर व सूदूरसथ सथानों का जञान नहीं हो सकता।  इसको इस परकार से भी सम सकते हैं कि हमें नेतर इनदरिया से वसतओं का दरशन होता है। नेतर हमारे शिर में सामने की ओर हैं। अतः हम आगे कछ दूर की वसतओं को ही देख सकते हैं, बहत दूर व अननत दूरी पर सथित वसतओं को नहीं। हम बिना घूमें अपने पीछे की पास की वसतओं को भी नहीं देख पाते। कदेशी जीवातमा का यह जञान अलपजञ कहलता है। मनषय का जीवातमा कदेशी है, अतः इसका जञान भी सरवजञ न होकर अलपजञ है। अपने अलपजञ जञान को वह ईशवरोपासना, वेदादि शासतरों का अधययन, माता-पिता-आचारय व समाज के जञानी परूषों की संगति कर अपने जञान में वृ़िदध कर सकता है परनत यह जञान वृदधि क सीमा तक ही होती है। सरवजञता की सथिति जो ईशवर को परापत है, वह सथिति जीवातमा को कभी भी परापत नहीं हो सकती।

इस लेख में हमने यह जाना है कि ईशवर के अननत गणों में से क गण है सरवजञता। जीवातमाओं में यह गण ईशवर से अतिनयून अलपजञता के रूप में विदयमान है।  ईशवर के इस गण में उसका सरववयापक होना भी क महतवपूरण कारण है। यदि ईशवर सरववयापक न होता तो उसमें यह गण नहीं हो सकता था। यह भी महतवपूरण तथय है कि ईशवर का यह गण अनादि व नितय है और हमेशा-हमेशा उसके साथ रहेगा। यह ईशवर का सवाभाविक गण है। सवाभाविक गण हमेशा अपने गणी के साथ रहते हैं। ईशवर यदि चाहे भी तो इसका तयाग नहीं कर सकता। यदयपि यह परशन निररथक है कि कया कभी ईशवर सा चाह सकता है। ईशवर की उपासना में इस गण सरवजञता का चिनतन करने से उपासक को लाभ मिलता है। उपासना में ईशवर से संगति होती है और सरवजञता का चिनतन करने से जीवातमा की अलपजञता में गण-वरधन होता है। यह गण वरधन यहां तक होता है कि वह ईशवर के सतय सवरूप को जानकर उसमें सथित व सथिर हो जाता है। यह सथिति सिदध योगियों को ही परापत होती है। इसका अभयास कोई साधारण से साधारण मनषय भी कर सकता है। हमारे गरूकलों व आरयसमाजों में उपासना सिखाई जाती है। महरषि दयाननद ने इसके लि उपासना विषय पर सनधया पदधति नाम की पसतक भी लिखी है। उसको पढ़कर उपासना के कषेतर में परवृतत हआ जा सकता है। उपासना में नैरनतरयता से धयान सथिर होता है और धयान की सथिरता से वह सथिति परापत होती है जो जीवन का लकषय है। इस सथिति को समाधि कहा जाता है। समाधि में ईशवर जीवातमा या उपासक अथवा योगी को अपने सतय सवरूप का निभररानत जञान कराता है जिससे योगियों के सभी संशयों की निवृतति हो जाती है। ईशवर के सवरूप का यह परकाश कछ इसी परकार का होता है जिस परकार से क सतरी अपने सवरूप का परकाश अपने पति के सममख करती है। समाधि में होने वाला ईशवर के सवरूप का परकाश इस परकार भी समा जा सकता है कि जैसे कोई सचचा गरू अपने समसत जञान का परकाश अपने शिषय पर करता है और उससे उममीद करता है कि वह उस जञान को आगे बढ़ाये। महरषि दयाननद के गरू दणडी सवामी विरजाननद ने भी अपने समसत जञान का परकाश महरषि दयाननद पर किया और उनसे अनरोध किया कि वह चाहते हैं कि दयाननद जी उनसे परापत अपने समसत जञान का परकाश सारे देश व विशव की जनता को करायें। इसी परकार से ईशवर सिदध योगी व उपासक पर अपने सवरूप व जञान का परकाश कर देता है। जो लोग उपासना करते हैं और उनहें योग की सिदधियां परापत हैं, वह चाहे किसी मत के अनयायी हों, उनका पनीत करतवय है कि वह उस जञान से देश की जनता को लाभानवित करें। यदि वह सा नहीं करते तो यह उनकी सवारथ की परवृतति व अजञान ही कहा जा सकता है।

हम समते हैं कि ईशवर के सरवजञ होने व जीव के अलपजञ होन का कछ जञान पाठको को हो गया होगा। हम अनरोध करते हैं कि सतयारथ परकाश आदि गरनथों का निरनतर सवाधयाय वा अधययन कर इस विषय व अनेक अनेक आधयातमिक व सामाजिक विषयों का जञान परापत कर पाठक अपने जीवन को सफल बनाये।

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