ईशवर किसे कहते हैं। ईशवर इस संसार वा बरहमाणड को बनाने वाली सतता को कहते हैं। वही सतता इस संसार को बनाकर इसका संचालन करती है तथा इस सृषटि की आय वा अवधि पूरण होने पर इसका संहार या परलय करती है। हमारी आंखों के समाने यह सारा संसार परतयकष है। इसमें किसी को किसी  परकार का कोई भरम नहीं है। अतः यह सृषटि व इसकी रचना निभररानत सतय है। इस संसार को ईशवर रूपी जिस सतता ने बनाया, उसका सवरूप कैसा है, यह परशन सवाभाविक रूप से हमारे मन में उठा करता है। यदि हम धरम गरनथों के चककर में पड़ गये तो वेद व सतयारथ परकाश आदि गरनथों को छोड़कर सरवतर भरानतियां ही भरानतियां हैं। कोई सृषटिकरतता ईशवर को आसमान पर किसी क सथान पर निवास करने वाला बताता है जिसका सवरूप उन परसिदध मतों के पसतकों में क मनषय के समान वरणित है। सी मनषयरूपी सवरूप वाली सतता से यह विशाल व अननत बरहमाणड बन नहीं सकता है, यह सरवथा असमभव है। इसके लि तो उसका चेतनसवरूप, सरवजञ, सरववयापक, निराकार, सरवशकतिमान, पूरव सृषटि रचनाओं का जञान व अनभव का होना आवशयक है। सृषटि रचना का कोई उददेशय भी होना चाहिये अनयथा सा कारय जिसका कोई उददेशय न हो, उसे किसी पागल मनषय के समान सतता दवारा किया गया कारय ही माना जाता है। आईये,  इन थोड़े से परशनों पर विचार कर लेते हैं। इससे हमें ईशवर समबनधी कछ बोध अवशय परापत होगा।

हम समते हैं कि ईशवर को जानना कठिन नहीं है। कठिन तो तब होता जब ईशवर की रची हई सृषटि हमारे सामने परतयकष विदयमान न होती। इस सृषटि ने ईशवर को जानने का कारय सरल कर दिया है। इस सृषटि के परतयेक पदारथ में रचना विशेष देखकर हम साधारण चिनतन व विचार करके इस निषकरष पर पहंचते हैं कि यह कारय मनषयों व मनषयों के समूह दवारा कदापि समभव नहीं है। क फल अनार को देखते हैं तो उसके अनदर जो अनार के छोटे छोटे सनदर व लाल रंग के दाने अगणित संखया में सगठित भरे ह हैं व जिसमें मीठा सवादिषट रस भरा हआ है, इनको यथारथ रूप में बनाने का कारय कोई भी मनषय कदापि नहीं कर सकता। जो कारय मनषय न कर सकें परनत जिसका असतितव संसार में है, वह सब रचनायें व कारय अपौरूषेय कारय अरथात ईशवर दवारा किये गये ही हो सकते हैं कयोंकि ईशवर से भिनन अनय कोई सतता संसार में विदयमान नहीं है। जैसा कि क अनार है वैसी ही सारी वनसपतियां हैं, फल हैं, यह जड़ जगत जिसमें सूरय, पृथिवी, चनदर, तारे, नकषतर आदि हैं, इन सहित सभी पराणी हैं जो केवल ईशवर के ही कारय व रचनायें हैं। ईशवर के कछ नियम हैं जिसमें कछ कारयों में वह मनषयों की भी सहायता लेता है। उन कारयों को मनषय सहज व सवभाविक रूप से करते हैं जैसा कि सनतान की उतपतति व रचना का कारय तो परमातमा करता है परनत इसमें वह माता पिता की सहायता लेता है। अब हम यह तो जान गये कि सृषटि की रचना उसने की है तो इस पर विसतार से विचार करने पर हम इनहीं निषकरष पर पहंचते हैं कि वह सरवजञानमय अरथात सरवजञ होना चाहिये। किसी निरमाण कारय को शकति की आवशयकता पड़ती है अतः ईशवर का शकतिशाली होना भी आवशयकता है। इस कारण ईशवर को सरवशकतिमान माना गया है। वह सा ही है, इसका परमाण ईशवर परदतत जञान चार वेद हैं जिसमें ईशवर ने अपने सवरूप का सवयं परकाश किया है। हम यहां यजरवेद के क मनतर 40/8 को परसतत करते हैं जिसमें ईशवर के सवरूप का परकाश किया गया है। मनतर है-स परयगाचछकरमकायमवरणमसनाविरमशदधमपापविदधम कविरमनीषी परिभूः सवयमभूरयाथातथयतोऽरथान वयदधाचछाशवतीभयः समाभयः। इस मनतर का अरथ है कि वह परमातमा सब में वयापक, शीघरकारी और अननत बलवान जो शदध, सरवजञ, सब का अनतरयामी, सरवोपरि विराजमान, सनातन, सवयंसिदध परमेशवर अपनी जीवरूप सनातन अनादि परजा को अपनी सनातन विदया से यथावत अरथों का बोध वेद दवारा कराता है। यह सगण सतति अरथात जिस-जिस गण से सहित परमेशवर की सतति करना वह सगण, (अकाय) अरथात वह कभी शरीर धारण व जनम नहीं लेता, जिस में छिदर नहीं होता, नस-नाड़ी आदि के बनधन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसे कलेश, दःख, अजञान कभी नहीं होता, इतयादि जिस-जिस रोग, दवेषादि गणों से पृथक मानकर परमेशवर की सतति करना है वह निगरण सतति है। इस से फल यह है कि जैसे परमेशवर के गण हैं वैसे गण, करम, सवभाव अपने भी करना। जैसे वह नयायकारी है तो आप भी नयायकारी होंवे। जो केवल भांड के समान परमेशवर के गणकीरतन करता जाता है और अपने चरितर को नहीं सधारता, उसका सतति करना वयरथ है।

इस वेदमनतर का अरथ सवामी दयाननद जी का किया हआ है। इस वेदमनतर में सगण व निरगण भकति व उपासना का जो विधान ईशवर दवारा मनतरारथ में बताया है उसे परसतत कर उनहोंने अपनी सूकषम बदधि व ऋषितव का परमाण दिया है। उनके वेद भाषय व सतयारथ परकाश आदि गरनथ से पूरव वेदमनतरों के इस परकार के अरथ कहीं विदयमान नहीं थे। पहली बात तो यह है कि महरषि दयाननद से पूरव किसी ने भी वेद के मनतरों के अरथ हिनदी में किये ही नहीं थे, अतः वेदों का जञान आम व सामानय जनता से कोशों दूर था। जो अनय भाषयकारों के संसकृत में अरथ उपलबध थे व हैं, वह यजञपरक परापत होते हैं। सायण आदि वेदभाषयकारों का मानना था कि वेदों का मखय परयोजन केवल यजञों को करना व कराना ही है। महरषि दयाननद ने इसका खणडन करते ह मनसमृति आदि गरनथों की साकषी से बताया कि वेद समपूरण धरम गरनथ होने के साथ ईशवर से परापत शदध जञान की संहितायें है जिसमें इस बरहमाणड वा संसार की सभी सतय विदयायें विदयमान हैं। से अनेक मनतर वेदों में हैं जिसमें ईशवर के सतय सवरूप का विधान व वरणन है। वेदों जैसा ईशवर, जीव, परकृति, मनषयों के करतवयों व विदयाओं का वरणन संसार के किसी अनय गरनथ व धारमिक पसतकों में सलभ व विदयमान नहीं है। अतः वेदों का सरवोपरि महतव निरविवाद है। ईशवर, जीवातमा व करतवयों का अनधविशवास व भरानतिरहित सतय जञान केवल वेदों से ही परापत होता है।

वेदों वं संसार के सभी धरम गरनथों में सबसे बड़ा अनतर यह है कि वेद ईशवर से परापत ह हैं तथा अनय संसार का सभी साहितय और धरम गरनथ जिसमें हमारे बराहमण गरनथ, 6 दरशन, 11 उपनिषद, मनसमृति, रामायण, महाभारत, गीता व पराण आदि गरनथ हैं, मनषयकृत अरथात मनषयों की रचनायें हैं। हमारे सभी ऋषि, अगनि, वाय, आदितय, अंगिरा, मन, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, जैमिनी, वयास, दयाननद आदि भी मनषय ही थे। यहां तक कि शरी राम, शरी कृषण आदि भी तिहासिक परूष होने से मनषय ही थे। संसार के आरमभ से लेकर आज तक जिस मनषय आदि पराणी ने जनम लिया है वह केवल व केवल मनषय वा जीवातमा ही थे। ईशवर का न अवतार कभी हआ है और न हो सकता है और न हि ईशवर को इसकी आवशयकता है। ईशवर की सभी सनतानें है और सभी क समान हैं, इसका परमाण वेदों में मिलता है। ईशवर किसी वयकति विशेष को सनदेशवाहक या धरम पररवतक के रूप में भी नहीं भेजता। यदि भेजता होता तो आज उसके सनदेशवाहक और परवरतक की सबसे अधिक आवशयकता न केवल भारत अपित विशव के अनेक देशों में थी। इनका कहीं पर भी न होना अवतारवाद व मतपररवतकों का खणडन सवतः कर रहा है। अतः वेद ही परम परमाण व ईशवरकृत होने से सरवमानय व सरवाचरणीय हैं। वेद ही मानवमातर का धरमगरनथ है, इतर गरनथों की वेदानकूल शिकषायें या मानयतायें ही सवीकारय हैं। वेद विरूदध कोई भी बात किसी भी मत में कयों न हो, वह सवीकार नहीं की जा सकती।

धरम का समबनध ईशवर की आजञा, शिकषाओं का पालन करना व तदनसार आचरण करना है। यह तभी समभव है कि जब ईशवर ने सवयं कोई जञान दिया हो। वेद के रूप में यह जञान हमारे सामने है जो लगभग 2 अरब वरषों से यथापूरव शदध रूप में उपलबध है। वेद जिस संसकृत में हैं, वह लौकिक व मानष संसकृत भाषा से भिनन अपौरूषेय व अलौकिक संसकृत भाषा है जिसे ईशवरीय भाषा कहा व माना जाता है। वेदजञान के बाद की पसतकें मनषयों दवारा असतितव में आईं भाषाओं में होने के कारण ईशवरीय व अपौरूषेय जञान की कसौटी पर विफल होती हैं। इन तथयों पर विचार कर विवेकी बनधओं को वेद को धरम गरनथ मानने के साथ अनयों से भी मनवाने का परयास करना चाहिये। यह भी ईशवरीय कारय व आजञा का पालन है जिसका उललेख महरषि दयाननद ने यह कहकर किया है कि सतय को मानना व मनवाना मे अभीषट है।

 

                हमने लेख के आरमभ में सृषटि रचना के परयोजन की चरचा की है। वेद व वैदिक साहितय से इसका भी सनतोषजनक उततर मिलता है। इस परशन का उततर उपरयकत उदधृत यजरवेद मनतर में भी दिया गया है। वेद ने बताया है कि वह परमेशवर अपनी जीवरूप सनातन अनादि परजा को अपनी सनातन विदया से यथावत अरथों का बोध वेद दवारा कराता है। इस पर विचार करने व अनय सनदरभों से यह जञात होता है कि परमेशवर अपनी जीव रूपी शाशवत, अनादि, नितय, अननत संखया वाली परजा के पूरवकृत पाप-पणयों का दःख व सख रूपी फल देने के लि इस सृषटि की रचना करता है। हम संसार में देख रहे हैं कि अननत जीव नाना पराणी योनियों में जनम लेकर सख व दःख भोग रहे हैं। मृतय के बाद जनम व जनम के बाद मृतय करमशः होता आ रहा है। तरक व परमाणों से भी परमातमा, सभी जीव व सूकषम कारण परकृति अनादि, अविनाशी, अमर सिदध होती है। अतः सृषटि बनने व बिगड़ने, जनम-मृतय व करमानसार जनम व सख-दःखों का भोग चलता चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इससे ईशवर दवारा सृषटि रचने का परयोजन जीवों को करमानसार सख व दःख देना सिदध होता है।

इस संकषिपत लेख से ईशवर के असतितव की पषटि होने के साथ उसके सवरूप का संकषिपत उललेख भी हो गया है। हम अनगरह करते हैं कि पाठक सतयारथ परकाश का अधययन कर ईशवर, जीवातमा व परकृति सहित परायः सभी विषयक परशनों व शंकाओं के उततर जानने का परूषारथ करें इससे उनहें जनम-जनमानतर में भूरिशः लाभ होगा। यदि कोई पाठक सतयारथ परकाश की पीडीफ परति परापत करना चाहे तो हमें हमारे इमेल उंदउवींदंतलं/हउंपसणबवउ पर समपरक करें। ईशवर अनगरह कर हम सबको सदबदधि अरथात विवेक सहित हमारी आतमा में सदजञान का परकाश करें।

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