सरकार की लापरवाही से जब कोई अधिकारी मरता है तो अखबार से लेकर सड़क तक नाम छप जाता है| लेकिन बिहार का गोपालगंज जिला तो बेनाम लाशें गोद में लिए रो रहा है जो की सरकार की ही घोर लापरवाही का नतीजा है| एक बार फिर हमेशा की तरह वो ही घिसे पिटे सरकारी बयान आ रहे है कि दोषी कोई भी हो बक्शा नहीं जायेगा, कड़ी  à¤•à¤¾à¤°à¤µà¤¾à¤¹à¥€ की जाएगी आदि-आदि| बहुत पहले हिंदी फिल्म के आखिर में लगभग एक डायलाग जरुर होता था कि अपने हथियार फेंक दो पुलिस ने तुम्हे चारों तरफ से घेर लिया है| इसी तरह कुछ दिन पहले बिहार सरकार भी अचानक शराबबंदी कर मानों कह रही थी कि बोतले फेंक दो सरकार तुम्हें सुधारना चाह रही है! लत तो लत होती हैं चाहें वो सरकारी महकमे में रिश्वत के लेन-देन की हो या किसी अमीर-गरीब आदमी की शराब पीने की| भला इतनी जल्दी कैसे छुट जाएगी? बस रास्ते बदल जाते है मुसाफिर वो ही रहते है|

अब प्रश्न यह कि यह लोग शराब पीते क्यों है? आज हम सब स्तंभकार, विश्लेषक, सामाजिक मुद्दों पर विचार विमर्श करने वाले जब भी लिखने बैठते हैं तो हमारा फर्ज बनता है कि विषय की गहराई में जरुर जाये! इस बात को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता कि शराब का चाहें कम सेवन किया जाय या अधिक, प्रत्येक स्थिति में वो व्यक्ति को सिर्फ और सिर्फ हानि ही पहुंचाती है| वह न केवल व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करती है, वरन उसके सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक ढांचे को भी तहस-नहस कर देती है| शराब कभी अमीरी और शान-ओ-शौकत का पेय पदार्थ समझा जाता था और कुछ वर्षो पहले तक तो मध्यम, गरीब वर्ग में तो इसका नाम भी लेना अपराध जैसा था| जबकि शराब का वर्णन पुराणों में भी कुछ इसी तरह किया गया कि देवता अक्सर सोमरस का पान किया करते थे| यहाँ तक की लिखने वालों ने तो समुंद्र मंथन में भी इनके निकलने का वर्णन किया| कुरान की जन्नत में तो इसकी नदी बहती बताई जाती है| फिल्मों में नायक का दिल टूट जाये या कोई खुशी की बात हो अक्सर जाम छलकते दिखाए जाते है| भला जब इतना सब कुछ बता दिया तो एक गरीब आदमी इससे महरूम क्यों रहे? सुख- दुःख का अहसास तो उसे भी होता होगा वो भी तो इस सोमरस के आलोकिक आनंद को पाना चाहता होगा जिसे अमीर से लेकर देवता और फरिस्ते तक पाते बताये गये है? में कोई शराब का पक्षधर नहीं हूँ किन्तु देश में आजादी से लेकर भले ही किसी राज्य सरकार पर गाँव-गाँव सडक का निर्माण ना हुआ हो शिक्षा का बुनयादी ढांचा भले ही किसी गाँव में ना खड़ा हुआ हो, बिजली पानी तो बहुत दूर की बात है पर आबकारी विभाग की मेहनत की बदोलत शराब जरुर गाँव-गाँव पहुँच गयी| इसके बाद जब लोग इसके आदी हो गये तो शराबबंदी शुरू कर दी आखिर क्यों? पहले उनके हाथ में बोतल दी क्यों थी, जब दी तो अब छीनी क्यों? या फिर सरकारों को अब पता चला कि यह चीज खराब और सेहत से लेकर पैसो तक का नुकसान करती है|

कोई बता सकता कि इतने सालों की बुरी आदत एक दिन में कैसे ठीक हो जाएगी? जो देश पिछले 69 सालों से अपने कागजी सिस्टम को नहीं सुधार पाया वो भला एक दिन में एक गरीब, अशिक्षित शराब के लती को कैसे सुधारेगा? जबकि सब जानते कि सबसे ज्यादा अकानूनी, अमर्यादित गैर जिम्मेदारी की कथा इसी देश में छपती है| अगर शराबी को शराब नहीं मिलेगी तो क्या वह नशा मुक्त हो जायेगा? शायद नहीं! पहले तो वह इधर उधर तलाश करेगा इसके बाद यदि नहीं मिलेगी या ज्यादा महंगी मिलेगी तो अन्य सस्ते नशे की तलाश करेगा| पिछले दिनों बिहार से ही खबर आई थी कि शराबबंदी के बाद अब नशेड़ी गांजा, भांग चरस व अफीम की लत मे फंसा हैं। मतलब शराब के आदी अब नशे के लिए दूसरे विकल्प ढूंढ़ने लगे हैं।

इस बिहार चुनाव में जब में नितीश कुमार के सुशासन के होर्डिंग बेनर देखता था तो सोचता था कि जरुर इस प्रदेश में दूध और व्हिस्की की नदियां बहती होगी दूध वाले दूध पियों और व्हिस्की के दीवाने व्हिस्की| यहाँ के सेठ और साहूकार,  à¤—रीब और मजदूरों के घर पानी भरते होंगे और सुवर्ण जाति के लोग दलितों पिछड़ों से अपने घरों में पूजा पाठ करातें होंगे! खैर सच्चाई सबके सामने है और सुशासन की परिभाषा से भी शायद हर कोई वाकिफ हो गया होगा! अब प्रश्न यह है कि इन लाशों के लिए जिम्मेदार किसको ठहराए? वहां के प्रशासन को या मीडिया को? जो मीडिया देश भर में होने वाले छोटे मोटे झगड़ों में अपरधियों और पीड़ितों की जाति तलाश लेती है क्या उस मीडिया को नहीं पता था कि यहाँ खुलकर शराब की बिक्री हो रही है? जबकि एक प्रसिद्ध अखबार का दफ्तर तो वहां से थोड़ी दूर पर ही स्थित है और मरने वाले सभी लोग दलित व अल्पसंख्यक बताये जा रहे है! हर एक मामले को जाति और धर्म से जोड़ने वाले नेता अब क्यों मौन है या आतंकवादी की तरह शराबी की भी जाति धर्म नहीं होती? शायद इन गरीब शराबियों की लाशों में मसाला नहीं इस वजह से कोई कथित पत्रकार और नेता इस मुद्दे को चखने को तैयार नहीं है|

जहरीली शराब से मौत की यह घटना जिस जगह हुई वहां से थाना और पुलिस के बड़े अधिकारीयों के ऑफिस ज्यादा दूरी पर नहीं है सारा गोपालगंज जानता था कि शराबबन्दी के बाद यहां धड़ल्ले से नकली शराब बिकती है| नहीं जानता था तो सिर्फ वह प्रशासन, जिसके अधिकांश सिपाही उसी जगह बैठकर कर शराब पीते थे| अब भले ही सरकारी आंकड़े 20 के आसपास हो, लेकिन गोपालगंज के लोगों की खुसरफुसर बता रही है कि यह आँकडा उससे कहीं ज्यादा है| कारण अधिकतर लोगों को प्रशासनिक अमले ने कुछ इस तरह डराया कि उन्होंने बिना रिपोर्ट दर्ज किये ही अपने सगो को जला दफना दिया कि कहीं शराब पीने पर मामला उल्टा न पड़ जाएँ| अब जो लोग सोचते है कि इस मामले की जाँच होकर और सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा इसके बाद लोग शराब पीना छोड़ देंगे और ठेकेदार बेचना, तो उनका सोचना गलत होगा क्योकि सरकार ने शराब प्रतिबंधित की थी, शराबी और ठेकेदार नहीं| वो अब भी स्वतंत्र है, ठेकेदार बेचते रहेंगे, शराबी पीकर मरते रहेंगे, कारवाही होती रहेगी इसके बाद भी सरकारे बदलती रहेगी और लाशों पर सरकारी लीपापोती होती रहेगी| यदि कुछ नहीं होगा तो वो है नशे के प्रति सरकारी स्तर पर जागरूक अभियान| क्या मात्र बोतल और दीवार पर गंभीर चेतावनी लिख देने से देश नशा मुक्त हो जायेगा| यदि हाँ तो फिर नोटों पर लिख देना चाहिए कि रिश्वत लेना-देना क़ानूनी जुर्म है|

 

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