: labbhuram
: Dead
: 12-10-1892
: Mallupota, Banga, Jalandhar, Panjab
: 21-12-1964

 à¤†à¤ªà¤•ा परारम‍भिक अध‍ययन उरदू से हआ। संस‍कृत के परेमी होने के कारण बाद में संस‍कृत-विषय का भी अध‍ययन आरम‍भ किया। सभी विषयों में परथम शरेणी में उततीरण होते ह आपने १०वीं ककषा परयन‍त अध‍ययन किया। सत‍यारथपरकाश के स‍वाधयाय से संस‍कृत पढ़ने विशेषतया महरषि दयानन‍द दवारा लिखित आरष परणाली को पढ़ने की उत‍कृष‍ट इच‍छा हई। फलत: ५ जून, सन १९१२ को आपने गृह त‍याग किया और आजीवन अजञात ही रहे।

      आरष गरन‍थों को पढ़ने का दृढ़ संकल‍प लेकर आप काशी के सपरसिदध विदवान पं. शरी काशीनाथ जी के शिष‍य पूज‍य स‍वामी शरी पूरणानन‍द जी सरस‍वती के चरणों में उपस‍थित ह। उनके सान‍निध‍य में महती तपस‍या के साथ लगभग छ: वरष ( जून १९१२ से १९१८ ) तक संस‍कृत-व‍याकरण, उपनिषदादि और ऋषि दयानन‍द के दवारा परणीत गरन‍थों का गहन अध‍ययन किया। तत‍पश‍चात १९२१ के परारम‍भ में साध आशरम हरदआगंज (पल काली नदी, अलीगढ़) में वीतराग स‍वामी शरी सरवदानन‍द जी महाराज से विचार विमरश कर ‘’विरजानन‍द आशरम’’ की स‍थापना की। यहा पूरव से चलने वाली अनारष-पाठविधि (लघ कौमदी सिदधान‍त कौमदी आदि) को समाप‍त कर पराच‍य परकरिया से अध‍यापन परारम‍भ करके आरष परणाली का उदधार किया।

      आपने व‍याकरणादि का अध‍यापन कारय करते ह स‍वामी शरी सरवदानन‍द जी से उपनिषद, महावैयाकरण पं. शरी देवनारायण जी तिवारी से संपूरण महाभाष‍य, पं. शरी ढष‍ढिराज जी शास‍तरी, पं. शरी गिरीश जी शक‍ल और पं. शरी गोस‍वामी दामोदर लाल जी से पराचीन दरशनों, म.म.पं. शरी चिन‍नस‍वामी जी शासतरी, पं. पटटाभिराम जी शासतरी से मीमांसाशास‍तर के सभी गरन‍थ, महान वैदिक विदवान, पं. शरी रामभटट रराहे जी से शरौतगरन‍थों का गम‍भीरता के साथ गहन अध‍ययन किया। अन‍य विदवानों से भी शेषदरशन, साहित‍य वाक‍यपदीय, निरक‍त आदि भी काशी में ही पढ़ते रहे। वैदिक वाङमय तथा पराचीन इतिहास के मरमजञ पं. शरी भगवददतत जी से अनसंधान का जञान पराप‍त किया।

      उक‍त वैदिक वाङमय का अध‍ययन तथा अध‍यापक करते-कराते ह आपने सामाजिक कारयों में भी परयाप‍त योगदान किया। तदयथा सन १९२३-२४ में मलकानों की शदधिकारय में सन १९२६ से २८ तक शदधि आन‍दोलन में काशी-हिन‍दू शदधि सभा के मन‍तरी के रूप में अक‍टूबर सन १९४७ से फरवरी १९५० तक शदधि आदि कारयों में भाग लेकर समाज की सेवा की और सन १९३६ में हैदराबाद के सत‍यागरह में वं सन १९५७ में हिन‍दी रकषा आन‍दोलन में अपने छातरों को भेजा। आपने सन १९२१ से आजीवन (सन १९६४) तक वैदिक वाङमय की महती सेवा की। आप अष‍टाध‍यायी, महाभाष‍य, निरक‍त, छन‍द, मीमांसा, शरौत, बराहमण, वेदादि का अध‍ययन, अध‍यापन और अनसंधान आदि में अथक परिशरम करते रहे। वेदवाणी मासिक पतरिका का संपादन करते ह अनेकों अनसंधानात‍मक लेख लिखकर पाठकों को लाभान‍वित करते रहे। काशी निवास काल में भरतृहरि कृत महाभाष‍य दीपिका का संपादन और अनेकों महतत‍वपूरण पराचीन गरन‍थों के हस‍तलेखों का संगरह किया। आपने स‍वयं भी अनेक गरन‍थों का परणयन और संपादन किया।

      आपकी बहमखी-परतिभा-संपन‍नता को देखते ह माननीय राष‍टरपति सरवपल‍ली शरी राधाकृष‍णन जी ने आपको सन १९६३ में राष‍टरीय पण‍डित की उपाधि देते ह राष‍टरपति परस‍कार परदान किया। आपके अनेक विदवान शिष‍य वं विदषी शिष‍यां हई। जिनमें महामहोपाध‍याय यधिष‍ठिर मीमांसक तथा डॉ. परजञा देवी जी आचारया, डॉ. मेधादेवी जी आचारया का नाम लोकविशरत है। आप पदवाक‍यपरमाणजञ के रूप में जाने जाते है।