संसार में समसत धारमिक गरनथों में वेद के बाद सतयारथपरकाश का परमख सथान है। इसका कारण इन दोनों गरनथों का मनषय जीवन के लि सरवोपरि महतव है। वेद ईशवर परदतत अधयातम व सांसारिक जञान है। यह बताना आवशयक है कि सरववयापक, सरवशकतिमान, सरवजञ, निराकार, सरवानतरयामी ईशवर ने सृषटि के आरमभ में अमैथनी सृषटि कर यवा मनषयों वा सतरी-परूषों को उतपनन किया था। इन मनषयों का मारगदरशन करने के लि ईशवर ने अपने सरवानतरयामी सवरूप से उतपनन परजा व मनषयों में चार ऋषियों अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा की पवितरतम आतमाओं में चार वेद करमश ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद का जञान सभी मनतरों के अरथ सहित परेरणा दवारा सथापित किया था। वेद सब सतय विदयाओं की पसतकें हैं। वेदों के इस महतव के कारण ही मनषयों को अपने कलयाण के लि इनका पढ़ना-पढ़ाना व सनना-सनाना मनषयमातर का परमधरम है। वेद की तलना में संसार के अनय सभी गरनथ गौण हैं। वह उसी सीमा तक मानय व परमाणिक हैं जहां तक उनकी मानयतायें वं सिदधानत वेदसममत, वेदानकल वं नयायदरशन वरणित आठ परमाणों से सतय सिदध होते हैं। हमारे जञान के अनसार इस कसौटी पर केवल सतयारथ परकाश ही पूरणतया व अधिकतम सतय सिदध होता है। अतः जीवन के कलयाण व इसके लकषय मोकष की परापति के लि सतयारथ परकाश का क गाइड व पथपरदरशक के रूप में अधययन अतयनत महतववपूरण, उपयोगी व आवशयक है। यह सौभागय की बात है कि सतयारथपरकाश के संसार व देश की अनेक भाषाओं में अनवाद उपलबध हैं जिनसे अधिकांश मनषय लाभानवित हो सकते हैं। 

विशव परसिदध सतयारथ परकाश गरनथ की रचना वेदों के अपूरव विदवान और सभी मतों वा धरमों के जानकार महरषि दयाननद सरसवती ने सन 1874 में की है। इसकी रचना का मखय कारण व उददेशय वेदों के विसमृत जञान का परकाशन व उसका संरकषण है। महाभारत काल और महरषि दयाननद के काल में लगभग पांच हजार वरषों का अनतर है। वरतमान आंगल समवतसर की उननीसवीं शताबदी में भारत की कमातर भाषा संसकृत का सथान अनेक भाषा व बोलियों ने ले लिया था। देश की सबसे अधिक परचलित, बोली व समी जाने वाली भाषा हिनदी थी जिसे महरषि दयाननद आरयभाषा कहते थे। संसकृत का जञान नयून हो जाने व अधिकांश लोगों की सम से बाहर होने के कारण वेदों को जन-जन की भाषा में परसतत करने की आवशयकता थी। महरषि दयाननद गजराती थे और संसकृत के अपने समय के शीरष विदवान थे। वह संसकृत धारापरवाह बोलते थे और संसकृत में ही वयाखयान भी देते थे। यदि वह संसकृत में सतयारथ परकाश की रचना करते तो इससे जनसामानय लाभानवित नहीं हो पाते। अतः बरहम समाज के नेता शरी केशवचनदर सेन की पररेणा से उनहोंने हिनदी को अपनाया और अपने सभी परचारातमक मखय गरनथों यथा सतयारथपरकाश, ऋगवेदादिभाषयभूमिका, संसकारविधि, आरयाभिविनय, वयवहारभान, गोकरूणानिधि आदि की रचना आरयभाषा हिनदी में की। इससे यह लाभ हआ कि साधारण हिनदी जानने वाला सतयारथपरकाश का पाठक वेदों का भी विदवान बन गया। उसे वेदों की उतपतति, वेदों का महतव, वेदों की विषय वसत, वेदों की पराचीनता, वेदों का ईशवरतव, वेदों का अनादितव व नितयतव, धरम जिजञासा के समाधान का सवतः परमाण गरनथ आदि का जञान हो गया। यह अभूतपूरव कारय महरषि दयाननद के गरनथ सतयारथपरकाश की रचना से हआ।

सतयारथपरकाश वेदों का पूरक गरनथ है जो जन साधारण की भाषा में वेदों का परिचय जनसामानय से कराता है। सतयारथ परकाश को पढ़कर जहां वेद, वैदिक मानयताओं व सिदधानतों का जञान होता है वहीं संसार व देश में परचलित सभी मत-मतानतरों व उनकी सतयासतय मानयताओं का जञान भी होता है। सभी मत-मतानतरों के यथारथ सवरूप को जानकर सतय मत को गरहण करने के उददेशय से इस सतयारथपरकाश गरनथ की रचना महरषि दयाननद जी ने की थी। यदि महरषि दयाननद जी ने वेदों का परचार न किया होता और सतयारथपरकाश की रचना न की होती तो आज देश का धारमिक सवरूप कया व कैसा होता? इसकी हम कलपना भी नहीं कर सकते। हिनदू धरम आज जिस रूप में है, कया वह वरतमान सवरूप में ही होता? यह भी ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। इतना ही कह सकते हैं कि हिनदओं की जनसंखया का अनपात वरतमान से काफी कम होता और हिनदू समाज आज की तलना में कहीं अधिक अंधविशवासों वं रूढि़यों से गरसित होता। देश की आजादी की चरचा करें तो आजादी के आनदोलन में अनेक नेता व कारयकतरता आरयसमाजी थे या आरयसमाज की विचारधारा से परभावित थे। यदि महरषि दयाननद ने वेद परचार, आरयसमाज की सथापना और सतयारथ परकाश की रचना न की होती तो यह कहना भी कठिन है कि भारत सन 1947 में आजाद हआ होता या न होता? कारण यह है कि तब देश को आदय करानति गरू पं. शयामजी कृषण वमरमा व महादेव गोविनद रानाडे न मिलते जिनके शिषय वीर सावरकर आदि और गोपालकृषण गोखले आदि थे। आरयसमाज के सभी सदसय व अनय सतयारथपरकाश को पढ़कर इसकी देशभकति की शिकषाओं से परेरित होकर देश को सवतनतर कराने के लि आगे आये तथा इन लोगों में से देश को आजादी के नेता व कारयकतरता बड़ी संखया में परापत ह। लाला लाजपतराय, भाई परमाननद, सवामी शरदधाननद, सरदार अजीत, सरदार किशनसिंह व भगतसिंह सहित उनका पूरा परिवार, पं. रामपरसाद बिसमिल आरयसमाजी व आरयसमाज की ही देन थे। अनेक पतरकार, साहितयकार, इतिहास के विदवान आरयसमाजी व आरयसमाज से परभावित थे जिनहोंने आजादी के आनदोलन में महतवपूरण भूमिका अदा की।

 à¤¸à¤¤à¤¯à¤¾à¤°à¤¥ परकाश की रचना का उददेशय देश से धरम व समाज में वयापत अविदयानधकार को मिटाना था तथा इसके सथान पर विकलप के रूप में वेद व वैदिक मानयताओं को सथापित करना था। सतयारथ परकाश इस समाज सधार वं देशोतथान के कारय में पूरण रूप से सफल हआ। इसका परमाण यह है कि बहत से पौराणिक हिनदू धरम के लोगों ने अपनी परानी आसथाओं व जीवन शैली को छोड़कर पूरण सतय वैदिक आरय मत को सवीकार किया। इसके साथ ही अनेक ईसाई व मसलिम मत में दीकषित व उसके अनयायी बनधओं ने वैदिक मत की जयेषठता व शरेषठता से परभावित होकर इसे गरहण किया। आरयसमाज की सथापना व सतयारथ परकाश के परकाशन से पूरव जो धरमानतरण होता था वह भय, परलोभन वं हिनदूमत की रूढि़वादी मानयताओं से असनतषट वं पीडि़त वयाकतियों दवारा होता था। जब आरयसमाज धरमानतरण करने वाली इन संसथाओं के सामने खड़ा हो गया तो इनका दससाहस पसत हो गया। तब यह चोरी छिपे दूर दराज के वनवासी आदि कषेतरों में भय व परलोभन से धरमानतरण करते रहे। जहां जहां आरयसमाज पहंचता जाता, वहां वहां यह कारय बनद हो जाता था। इस परकार से आरयसमाज व सतयारथपरकाश ने भय, लोभ व अनय अनचित कारणों से किये जाने वाले धरमानतरण को भी नियंतरित किया। देश में हिनदू जनसंखया का वरतमान में जो सवरूप है उसे बनाये रखने व परापत करने में आरयसमाज का महतवपूरण योगदान है। यदि यह सथापित न होता और सतयारथपरकाश जैसा गरनथ इसके दवारा न मिला होता तो देश व वैदिक संसकृति की अतयधिक हानि होती जिससे आरयसमाज व सतयारथ परकाश ने रकषा की है।

 à¤µà¥‡à¤¦à¥‹à¤‚ के आधार पर मनजी ने धरम के 10 लकषण बताये हैं जिनमें धैरय, कषमा, मन को नियनतरित करना, छप कर अनचित कारय चोरी आदि न करना, शरीर के अनदर व बाहर की सवचछता, इनदरियों का संयम, बदधि को जञान से यकत बनाना, अविदया दूर कर विदया गरहण करना, सतय का धारण व पालन तथा करोध न करना हैं। हमें लगता है कि संसार के सभी मतों व धरमों में इन धरम के लकषणों का पूरणरूपेण पालन यदि किसी धरमगरनथ में है तो वह वेद के पशचात सतयारथपरकाश में ही है। सतयारथ परकाश की इसके अतिरिकत अनय भी अनेक विशेषतायें हैं। सतयारथ परकाश का पाठक बचचा, यवा व वृदध अनधविशवासों, पाखणडों, करीतियों, मिथयाचरणों आदि से बचता है। उसे ईशवर व जीवातमा का सचचा सवरूप विदित होता है जिससे वह मिथया मूरतिपूजा आदि को छोड़कर निराकार, सरववयापक, सरवजञ ईशवर की उपासना को कर धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति में अगरसर होता है। सतयारथ परकाश की शिकषाओं के पालन से देश व इसके नागरिक बलवान होते हैं। अतः सतयारथ परकाश का देश-देशानतर में अधिक से अधिक परचार होना चाहिये जिससे संसार के नागरिकों को शरेषठ मनषय बनाया जा सके।

  महरषि दयाननद ने अपने समय में लपत वेद विदयाओं को अपने परूषारथ, तप व मेधाबदधि से पनरदधार व उनहें पनजीरवित किया था और अपना सारा जीवन इसी के निमितत लगाया। वेद विरोधियों के षडयनतर के परिणामसवरूप विषपान से उनके जीवन का पटाकषेप हआ। उनकी अनपसथिति में उनके सभी अनयायियों का यह दायितव है कि वह सतयारथ परकाश का देश-देशानतर में परजोर परचार करें जिससे असतय व अविदयाजनय मत मतानतर समापत होकर वेदों की धवजा संसार में लहलहाये और विशव में अशानति व दःख दूर होकर सख व शानति सथापित हो।  

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